उत्तराखंड में पलायन के विकराल सवाल का हरीश रावत ने खोजा समाधान !

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उत्तराखंड में पलायन के विकराल सवाल का हरीश रावत ने खोजा समाधान !

देहरादून (उत्तराखंड पोस्ट ब्यूरो) शिल्पकार (पार्ट-1) शीर्षक से उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने शिल्पकारों पर लिखते हुए बताने की कोशिश की है शिल्प संवर्धन में ही उत्तराखंड की विकराल समस्या पलायन का उत्तर भी है। शिल्पकारों के किस्से-कहानियों के जरिए हरीश रावत इस बात को समझाने की कोशिश कर रहे हैं। नीचे पढ़िए


उत्तराखंड में पलायन के विकराल सवाल का हरीश रावत ने खोजा समाधान !

देहरादून (उत्तराखंड पोस्ट ब्यूरो) शिल्पकार (पार्ट-1) शीर्षक से उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने शिल्पकारों पर लिखते हुए बताने की कोशिश की है शिल्प संवर्धन में ही उत्तराखंड की विकराल समस्या पलायन का उत्तर भी है। शिल्पकारों के किस्से-कहानियों के जरिए हरीश रावत इस बात को समझाने की कोशिश कर रहे हैं। नीचे पढ़िए हरीश रावत का लेख शिल्पकार (पार्ट-1)-

मेरे गांव में कोटाल देवता का मन्दिर है। शिल्पकारों के घरों को कोटालों की बाखली कहा जाता था। मेरी बूढ़ी परदादी बंगारस्यूं के बिष्टों की लड़की थी। उनके साथ कुछ लोग आये, इन लोगों के आदि पुरूष को हम कोटाल देवता के नाम से पूजते हैं। मेरे स्व0 पिताजी हमसे कहते थे, जब तक इनको पूजोगे व कोटालों का सम्मान करोगे घर में व काम-धन्धे में बरकत रहेगी। ये भी पढ़ें– यहां छिपा है राज़ | जानिए कैसे होगा कलयुग का अंत ?

जब तक मेरे गांव की शिल्पकार बाखली गुंजायमान रही, मेरा गांव भी गुंजायमान रहा। ज्यूं-2 शिल्पकारों ने गांव छोड़ा, गाॅव की रौनक भी घटती गई। पहले गांव के सब मकान उनके बनाये थे, अभी जो बचे हैं शानदार लगते हैं। तराशे हुये पत्थरों की दीवारें, कहीं सूतभर भी पत्थर से पत्थर के मध्य व दीवाल से दीवाल तक चूक नहीं है। हमारे घर-गांव के इन शिल्पियों के बनाये मकानों को भूकम्प भी नहीं हिला सका है। स्वास्तिक के चिन्ह के साथ बनाई अपने घर की चौखट व मेहराव को मैं आज भी नहीं भूल पाया हूॅ। बूबूजी के समय में बने घर में मेरे पिताजी व चाचा जी लोग पैदा हुये। उसी घर से उनकी अंतिम यात्रा निकली। अभी-2 चार वर्ष पहले 70 वर्ष के हरीश रावत ने सड़ती हुई लकड़ी व टूटते हुये मकान का जीर्णोंधार किया है। लगभग सवा सौ साल बूबू जी का बनाया घर, मेरे परिवार का आशियाना रहा और अब भी हमने उसे उसी भवन शैली में बनाया है। अन्तर इतना है पहले मिट्टी का गारा था अब सिमेन्ट-बजरी की तगार है। पहले कयाला गांव (अल्मोड़ा के पास) की स्लेटें थी, अब मिश्रण है। अब इस घर में गोंतियाई (पहाड़ी स्पैरों) के लिये घोल बने हुये नहीं हैं। अब मेरे नाती-पोते गोंतियाई के झुंड को देखकर वैसे ताली नहीं बजायेंगे, किलकारी नहीं भरेंगे, जैसे स्व0 बचे सिंह जी के पोते मोहन, रूद्र, हरीश, चन्दन, नारायण, दलजीत, जगदीश व दिनेश आदि दो दर्जन भाई-बहन बचपन में भरा करते थे। इन शिल्पियों के बनाये घर में कभी ठण्ड व गर्मी का ऐहसास नहीं होता था। एक सम्पूर्ण इकाई था, हमारा घर और अब एक आवास है। अब कुछ सुविधायें ज्यादा हो सकती हैं, परन्तु वह अपनत्व नहीं है, जो इन शिल्पियों के हुनर ने हर पत्थर व चौखट में उकेरा था।

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ये अकेले हमारे घर की कहानी नहीं है, बल्कि हिमालयी क्षेत्र के अधिकांश घरों की है। वर्षों पहले मैं गब्र्यांग (धारचूला) गया था, वहां के भूस्खलन से खिसके, झोल खाये घर भी उत्तराखण्ड की अद्भूत भवन शैली का अनूठा उदाहरण है। मेरी आंखों में आज सैंतीस साल बाद भी गब्र्यांग व टिहरी के मकानों की चौखटों-मेहरावों का अक्क्ष बार-2 उभर आता है। आज क्विटी, गूंजी, कल्प, खाती, देवरा आदि गांवों में होमस्टे पर्यटन के ये घर मुख्य आकर्षण बने हुये हैं। अभी-2 मैं थराली चुनाव के दौरान असेड़ गांव में गया था। वहां का एक-ढ़ेड़ सौ साल पुराना घर ज्यों का त्यों खड़ा है और अपने वास्तुकला के सौन्दर्य से ताजमहल की तरह हर देखने वाले को मुग्ध कर रहा है। यह घर सुरेन्द्र सिंह बुटोला जी का है। थोड़े से संरक्षण से यह मकान, सौ साल और ज्यों का त्यों हमारे शिल्प के झण्डे को ऊंचा रखेगा। बद्रीनाथ, केदारनाथ, बागनाथ, जागनाथ, तुंगनाथ, बैजनाथ, आदिबद्री आदि मन्दिरों को बनाने कहीं बाहर से शिल्पी नहीं आये होंगे, यहीं मेरे गांव घर के मोहन राम, खीम राम आदि के हाथ व हथौड़े ने हमारी संस्कृति, सभ्यता व भगवान के घरों को बनाया होगा। देखिये ईश्वर का चमत्कार जिस हिमालयी जल सैलाब ने जो रास्ते में आया सब उखाड़ दिया। मगर भगवान केदार के नन्दी की पूंछ भी नहीं तोड़ पाया। मन्दिर के बूढ़े पत्थरों को भी नहीं हिला पाया। उत्तराखण्डी शिल्प के पराक्रम का इससे अनूठा क्या उदाहरण हो सकता है।

हमारी बूढ़ी दादी को शायद परदादी को उसके मायके के लोगों ने शादी में एक तांबे का बड़ा सा घड़ा दहेज में दिया था। मेरी पीढ़ी तक हमारे परिवार की हर नई नवेली बहु धारे से उस घड़े में पानी भर कर पानी लाती थी और सारा परिवार एक-2 घूंट उस पानी को पीता था। समय के साथ वह घड़ा अब मेरे घर के एक कोने में पड़ा हुआ है। समय घिस गया मगर मेरे घर-गांव के टम्टा साहब के गढ़े हुये घड़े का कुछ भी नहीं घिसा और कुछ भी नहीं टूटा है। आज भी उनके हुनर की चमक उस घड़ें में हमारे स्मृद्ध शिल्प का अक्क्ष झलकाती है।

मेरे गांव के नरदा (बारूडी) के पिताजी ने मेरी दीदी के पैदा होते वक्त एक चंवरा (बड़ी सी डलिया) शुभकामना स्वरूप दिया था। मेरी दीदी से लेकर मेरे सबसे छोटे भाई जगदीश का नवजात शिशुपन उसी चंवर में झूला और माॅ ने उसी चंवर को झुलाकर, लोरी गाकर हमको बड़ा किया। हम चार भाई-बहनों के मध्य 35 वर्ष का अन्तराल है और वह चंवर मेरी मां के जिन्दा रहने तक हमारे घर में ज्यों का त्यों था। शायद नये जमाने के नये लोगों ने उसे कहीं कोने में या घर से बाहर फेंक दिया होगा। मगर मेरी यादों में वह चंवर आज भी बसा हुआ है।

कलदा लौहार की ढौकनी में गड़े हुये लोहे की धार तेज व तासीर बड़ी मजबूत होती थी। मैं उस समय 15-16 वर्ष का रहा हूंगा। कलदा हमारे घर आये और पिताजी से कहा ककज्यू मैं गांव छोड़कर अपने लड़के के पास गाजियाबाद जा रहा हूं। मेरा क्या है गांव में, गांव के बर्तन कार-2 (गढ़-गढ़) कर मैंने बच्चे पाले मगर ऑफर(छोटे वर्कशॉप) की भूमि भी मेरी नहीं है। मकान की भूमि भी मेरे नाम नहीं है। लड़का कह रहा है छोड़ो इस गांव को हमारा क्या है यहां। मेरे पिताजी ने पूछा तुम्हारा मन क्या कह रहा है। कलदा ने कहा गांव छोड़ने को मन नहीं है, मगर हमारी तो कहीं जड़ ही नहीं है। एक पुछेड़ी (जमीन का टुकड़ा) भी मेरा नहीं है। ककज्यू मुझे जाने दो। पिताजी ने तत्काल फैसला सुना दिया और भाईयों से पूछे बिना कलदा के नाम पर पांच रूपये में एक बड़ा खेत व उनके आफॅर व मकान की जमीन कर दी और आज कालू राम जी की तीसरी पीढ़ी भी गांव में है।

कालूराम जी का दर्द सारे शिल्पकारों का दर्द था और है। एक पुछेड़ी (जमीन का टुकड़ा) का सवाल आज भी चुनौती है। जिन्होंने हमारा घर बनाया, हमारे भगवान का घर बनाया, हमारी व्यवस्था ने उनके घर की चिन्ता नहीं की। मेरे पिताजी जो कर सकते थे उन्होंने किया। उनके बेटे ने भी वर्षों से बिना पट्टे के भूमि के कब्जेदारों, पट्टेदारों व हरिग्राम, इंदिरा ग्राम व गांधी ग्रामवासियों को उनके कब्जे की भूमि का मालिकाना हक देकर जमीन की पुछेड़ी (टुकड़े) के सवाल का समाधान निकाला है। हमारी सरकार ने ऐसे सभी लोगों व गर्वमेन्ट ग्रान्ट एक्ट के लाभार्थियों को उनके कब्जे की भूमि का मालिकाना हक देकर सही दिशा में एक मजबूत कदम बढ़ाया है।

मैं सोचता रहता हॅू, पहले कौन उजड़ा, शिल्पी या गांव। किसने चाचा-चाची, आमा-बूबू, भाई-द्यौरा (देवर) के प्यारे से रिस्ते को दम तोड़ने दिया। शिल्पी थे जहां काम मिला वहां चले गये। खूब कमाया। उनमें से कई लोग अपने पूर्वजों की मिट्टी के सत्व को नहीं भूले। ऐसे ही हमारे ललदा भी थे। अभी-2 उनके पुत्र श्री मुसराम का भी स्वर्गवास हो गया है। गांव से ललदा रामनगर गये। समय के साथ भाई को फिर अपने बच्चे को भी ले गये। टेलर मास्टर थे स्व0 ललराम जी। हाथ के हुनर व मीठे बोलों ने उन्हें खूब दौलत दी। खूब सम्पत्ति भी जोड़ी, मगर गांव के एक सूप (टोकरी) मडुवे को व त्यौहारों की नेग को ललदा कभी नहीं भूले। हमारे घर में उनका बड़ा सम्मान था, एक टोपी लेकर ललदा हर शुभ काम में आते थे। मात्र एक सूप भर अनाज को ललदा पूर्खों की माटी की भेंट मानकर खुशी-2 ले जाते थे। उनके पुत्रों ने भी परम्परा निभाई।

शिल्पकार को बदले हुये समय के साथ प्यार व शिल्प को सम्मान नहीं मिला। हमारे गांवों से बहुत सारे शिल्पकार चले गये। जो कुछ बचे हैं, मैं गांव वालों से कहता हॅू इन्हें संभालो। मैंने अपने गांव में उनके घर आंगन में पानी, बिजली पहुंचाई। उनके पास अब खेती भी है गांव से प्यार बना हुआ है। मगर आज की बदली हुई फिजा में उन्हें अपना हुनर तरासने का मौका मिलना चाहिये। सत्ता का दायित्व है शिल्पकारों के हुनर को संरक्षण देकर उसे तरासने का मौका दें। दुनिया आज तकनीक की दिवानी है। हमने अपने जन्मजात शिल्पकारों अर्थात क्राफ्ट्स मैन को तिरोहित होने दिया है। शिल्प को मरने दिया है। अद्भूत शिल्प, हमारी संस्कृति की पताका शिल्प, विलुप्त होती जा रही है। आज कितने घर बन रहे हैं, पुरानी भवन शैली के। शायद एक-दो। तांबे का स्थान पीतल व स्टील ने ले लिया है। मेरे गांव के ललदा का स्थान राजस्थान से आये लौहारों ने ले लिया है। मैंने धूनाकोट (लोहाघाट) की कढ़ाई को बढ़ावा देने के लिये अल्मोड़ा, पौड़ी व हरिद्वार जिले में गर्भवती महिलाओं को एक-2 धूनाघाटी कढ़ाई देने का आदेश दिया। धन्य हो सरकार, सरकार ने धूनाघाट की कढ़ाई के स्थान पर मशीन में बनी कढ़ाईयां बंटवा दी। मैंने मंत्रिमण्डल में फैसला लिया, प्रत्येक सरकारी निर्माण में 20 प्रतिशत निर्माण कार्य उत्तराखण्डी शैली में होगा। कुछ छुट-पुट कार्यों को छोड़कर, मैं अपने आदेशों की धज्जियां उड़ते स्वयं देखता रहा। किसी न किसी बहाने निर्माणकर्ता एजेन्सियां या विभाग इस नियम को लागू करने से बचने का बहाना ढ़ूढ़ते थे। मैंने उत्तराखण्डी शिल्प के संरक्षण व संर्वधन के लिये अल्मोड़ा के गरूणाबांज में संस्थान स्वीकृत किया। भूमि अधिकृत कर काम प्रारम्भ करवाया। पता चला है, सरकार परिवर्तन के साथ संस्थान का काम भी रूक गया है। मुंशी हरिप्रसाद टम्टा जी ने उत्तराखण्ड के शिल्पियों को शिल्पकार का संबोधन दिया। यह संस्थान उनकी स्मृति को समर्पित है। पुरानी व नई तकनीक के समन्वय से उत्तराखण्डी शिल्प को आगे बढ़ाने के उद्देश्य की पूर्ति में यह संस्थान मील का पत्थर सिद्ध होगा। शिल्पकारों की धरती उत्तराखण्ड अपने किसी एक शिल्प को राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय ख्याति न दे पायें, यह एक बड़ी चुनौती है। कहीं न कहीं समय के अन्तराल में हमसे चूक हुई है। अभी तो हम अपने यहां आने वाले पर्यटकों के लिये भी कोई ऐसा शिल्प नहीं गढ़ पाये हैं, जिसे वे यादगार के रूप में अपने साथ ले जाना चाहें। मैंने एपण को व्यवसायिक रूप देने व उसके मार्केटिंग को आगे बढ़ाया था। एपण-2 खूब चर्चा हुई, कुछ स्थानों से मार्केटिंग हो भी रही है। कभी अल्मोड़ा का ट्वीट राष्ट्रीय स्तर पर था। उत्तराखण्ड की वस्त्रों की दस्तकारी को जो लोग जिन्दा रखे हुये थे, बाजार के अभाव में काम छोड़ रहे हैं। हाथ के इस हुनर को तरासने के लिये हमने नन्दादेवी सेन्टर ऑफ एक्सिलेन्स स्थापित किया है। आने वाले लोग इस संस्थान को किस दिशा की ओर लेकर जाते हैं, उस पर दस्तकारी का भविष्य निर्भर है। मगर यह सत्य है, जो अपना शिल्प भूलता है, वह अपना अस्तित्व भूलता है। यह शिल्प हमें ईश्वरी देन था, हम सहेज नहीं पाये। आओ जितना बचा है उसे सहेजने के लिये कमर कसें, नहीं तो एक दिन हम कहते रह जायेंगे। ‘‘बड़ी गौर से सुन रहा था जमाना, हमी सो गये दास्ता कहते-कहते’’। जागो उत्तराखण्ड-शिल्प संर्वधन में ही पलायन के सवाल का उत्तर भी है। जय शिल्पकार।

 

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