उत्तराखंड | हरीश रावत को दो साल बाद भी है मलाल, मुख्यमंत्री रहते ये काम नहीं कर पाया

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उत्तराखंड | हरीश रावत को दो साल बाद भी है मलाल, मुख्यमंत्री रहते ये काम नहीं कर पाया

नई दिल्ली (उत्तराखंड पोस्ट) उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को उत्तराखंड की सत्त गंवाने के करीब दो साल बाद भी इस बात का मलाल है कि एक काम को नहीं कर पाए। हरीश रावत ने अपने फेसबुक पेज के माध्यम से अपने दिल की बात जनता के सामने रखी है और बताया कि क्या


नई दिल्ली (उत्तराखंड पोस्ट) उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को उत्तराखंड की सत्त गंवाने के करीब दो साल बाद भी इस बात का मलाल है कि एक काम को नहीं कर पाए।

हरीश रावत ने अपने फेसबुक पेज के माध्यम से अपने दिल की बात जनता के सामने रखी है और बताया कि क्या वे करना चाहते थे और किस वजह से नहीं कर पाए।

पूर्व सीएम हरीश रावत की कलम ने इस पर क्या लिखा उसका पूरा मजमून नीचे हूबहु दिया हुआ है-

हरीश रावत लिखते हैं कि  आज नागरिकों को बेसिक पेंशन देने की बात हो रही है, राहुल गाॅधी जी इस आईडिया के चैंपियन हैं। मैंने मुख्यमंत्री के रूप में इस सोच पर काम किया था। निश्चित मासिक आय धारक व आयकर दाताओं को छोड़कर लगभग 80 प्रतिशत उत्तराखण्डी परिवारों को एक हजार रूपये का नागरिकता बोनस देने के प्रस्ताव पर, मैंने वरिष्ठ अधिकारियों का समूह गठित कर उनसे दो बार चर्चा की। इस योजना पर सात सौ करोड़ रूपये का खर्च आने का अनुमान था। राज्य पहले से ही दो सौ अठहत्तर करोड़ रूपये विभिन्न कल्याण पेंशनों पर खर्च कर रहा था।

प्रारम्भ में अधिकारियों में मेरे इस प्रस्ताव को लेकर बड़ी घबड़ाहट पैदा हुई। योजना के खिलाफ कई तर्क दिये। अन्ततः यह तय हुआ कि, प्रथमतः पेंशन मद में पचास करोड़ रूपये का अतिरिक्त प्राविधान कर लिया जाय। ताकि इस योजना को लागू किया जा सके। बजट के बाद इस योजना की रूप रेखा तैयार कर इसे लागू करने का निर्णय लिया गया। नियती को कुछ और ही मंजूर था।

बजट सत्र के दौरान पार्टी दल-बदल का शिकार हो गई। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। एक बड़ी कठिन कानूनी लड़ाई के बाद राष्ट्रपति शासन हटा और मैंने पुनः मुख्यमंत्री के रूप में कार्य प्रारम्भ कर, एक नया इतिहास बनाया। विधानसभा ने दल-बदल से पहले राज्य का बजट पास कर दिया था। विधानसभा व माननीय न्यायालय ने इस तथ्य को स्वीकार किया। राज्य के महामहिम राज्यपाल अदृश्य शक्ति के प्रभाव में बजट को पारित मानने को तैयार नहीं थे। विधानसभा द्वारा पारित विनियोग विधेयक, दो माह से अधिक समय तक राज्यपाल महोदय के पास लम्बित पड़ा रहा। राजभवन व दिल्ली में कई स्तर पर वार्ता के बाद, यह तय हुआ कि बजट पुनः पास किया जाय। कई ना नुकर के बाद हमारी सरकार को पुनः बजट लेकर विधानसभा के सम्मुख जाना पड़ा। समझौते में बजट में कई फेर बदल करने पड़े।

ऐसी ही एक और मद जिसके लिये हमने सौ करोड़ का प्राविधान रखा था, उसे भी नये बजट प्रस्ताव में छोड़ना पड़ा। यह मद थी, नये जिलों व कमिश्नरियों के सृजन की। दो नई कमिश्नरियां व नौ नये जिलों के निर्माण के लिये प्रथम वर्ष में यह राशि पर्याप्त थी। बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों में इस निर्णय को छोड़ने पर मुझे गहरा दुःख हुआ। नये जिलों व कमिश्नरियों का प्रस्ताव विभाग द्वारा बड़े परिश्रम के साथ तैयार किया गया था। दो बार बिना एजेंडा आईटम के रूप में हमने मंत्रिमण्डल में भी इस पर चर्चा की, कुछ विरोध था।

कुछ विधायकों का तर्क था कि, उनके वर्तमान जिले के बंटवारे से उन्हें नुकसान हो सकता है। कुछ मंत्रिगणों का कहना था कि, इससे नये क्षेत्रों में भी जिला बनाये जाने की मांग उठेगी और उन्हें परेशानी होगी। मैंने रास्ता निकालने का बड़ा प्रयास किया। राजनैतिक इच्छा शक्ति के बावजूद अन्ततः धन के अभाव में इस कार्य को चुनाव के बाद के लिये छोड़ दिया। छोटे जिले विकास की दृष्टिकोण से बहुत अच्छे हैं, चम्पावत, रूद्रप्रयाग इसके उदाहरण हैं।

यदि हमारा बजट नहीं गड़बड़ाया होता, राज्य में राष्ट्रपति शासन नहीं लगा होता तो राज्य में आज 22 जिले होते। मैंने सर्वाधिक नई तहसीलें व उपतहसीलें खोली। तहसीलें नागरिक सुविधा देती हैं मगर विकास में अधिक मद्दगार नहीं हैं। फिर भी मैंने जहां भी सम्भव था तहसीलें व नगर-निकाय खोले। नई तहसीलों की तो शायद एकाध स्थान को छोड़कर भविष्य में मांग नहीं आयेगी। शहरीकरण एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। आगे भी बहुत सारे शहरी पालिकायें अस्तित्व में आयेंगी और उनका गठन होना चाहिये।

सरकार को प्रोएक्टिव तौर पर शहरीकरण को बढ़ावा देना चाहिये। राज्य में शहरीकरण की गति को बढ़ाना आवश्यक है। मैंने इस सोच को बढ़ाने के लिये 22 नये शहरी क्षेत्र गठित करने हेतु यू-हुड्डा नाम से संस्था गठित की और भराड़ीसैंण, चिन्यालीसौंण तथा गरूड़ाबाज व मुक्तेश्वर को पायलट प्रोजक्ट हेतु चयनित किया गया।

सरकार कभी-2 अंधी होती है। नये विकासखण्ड व विकासखण्डों का पुनर्गठन एक बड़ा काम है। राज्य को इसकी बड़ी आवश्यकता है। मैंने अपना राजनैतिक जीवन एक ब्लॉक प्रमुख के तौर पर प्रारम्भ किया।

सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही मैं नये विकासखण्डों के गठन व पुनर्गठन की आवश्यकता को समझ गया था। भिकियासैंण विकासखण्ड का मैं प्रमुख रहा। ब्लॉक मुख्यालय में घुसने के लिये एक पड़ोसी ब्लाॅक ताड़ीखेत से होकर आना होता था। प्रमुख कक्ष की खिड़की से मैं अपने विकासखण्ड के बजाय, पड़ोसी विकासखण्ड के दर्शन करता था।

मुख्यमंत्री बनते ही मैं भारत सरकार के योजना मंत्रालय में नये विकासखण्डों के प्रस्ताव लेकर गया। प्रारम्भिक ना के बाद, हमारे प्रस्तावों पर इतनी जानकारियां व सर्वेक्षण मांग लिये कि, किसी भी मुख्यमंत्री के लिये एक कार्यकाल में इसे अमल में लाना असम्भव था। मैं इस सन्दर्भ में नीति आयोग से भी मिला, उनका रवैय्या अपने पूर्ववर्तीय की तर्ज पर ही था।

केन्द्र सरकार स्वीकृति देने को तैयार नहीं थी। सत्ता से हटने के दो वर्ष बाद भी इस टीस से मैं उभर नहीं पाया हूं। यदि मेरी सरकार नये जिले व ब्लाॅक खोलने तथा ब्लाॅक पुनर्गठन में सफल हो गई होती, तो राज्य को बड़ा फायदा होता। इन दो निर्णयों की शक्ति पर राज्य की विकास दर में एक से डेढ़ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की जा सकती थी। मैंने अपनी असमर्थता से एक सबक सीखा। जब आप शक्तिशाली होते हैं या राजनैतिक परिस्थितियां आपके अनुकूल होती हैं, सबसे कठिन निर्णय उसी वक्त लेने चाहिये।

मुझे ये दोनों निर्णय वर्ष 2014 के उत्तरार्ध या 2015 के प्रारम्भ में ले लेने चाहिये थे। मैं ऐसा नहीं कर पाया, मैं अपने बेचैन मन को समझता हॅू। सोचता हॅू कहां था उस समय वक्त चारों तरफ भंयकरतम आपदा से निपटने की हिमालय सरीखी चुनौती थी। यही उस समय राज्य की सर्वोच्च प्राथमिकता थी। फिर भी मुझे स्वीकार करना चाहिये कि, मैं ऐसा नहीं कर पाने से दुःखी हॅू। धन मेरे लिये चुनौती नहीं रहा। एक इनोवेटिव मुख्यमंत्री सौ, दो सौ करोड़ के वित्त की कभी भी व्यवस्था कर सकता है।

मुख्यमंत्री के सामने स्पष्ट रोड मैप की आवश्यकता होती है। मेरे सामने स्पष्ट रोड मैप था। मगर केन्द्र सरकार का असहयोग व राज्य की विस्फोटक राजनैतिक स्थिति के कारण, मैं चाहते हुये भी निर्णय नहीं ले पाया।

एक ऐसा ही महत्वपूर्ण निर्णय जिसे लिया मगर प्रचार तंत्र के दबाव में आधे रास्ते से वापस लेना पड़ा। एक ऐतिहासिक निर्णय को वापस लेने का तथ्य हमेशा मेरे मन को कचोटता रहेगा। उत्तराखण्ड की आर्थिक व्यवस्था को स्थायी आधार देने व पलायन की चुनौती से निपटने के लिये, किसी भी मुख्यमंत्री को उसकी माटी में ही हल खोजना चाहिये। उत्तराखण्ड की असिंचित खेती में, श्रम के मुकाबले उत्पादन बहुत कम है। लोग लगातार खेती छोड़ रहे हैं, एक बड़ी संख्या जो खेती कर रही हैं, बन्दर, लंगूर, सूअर, जड़ाऊ उनके दुश्मन बनकर उनकी खेती पर हमलावर हैं। खेती के उत्पाद को स्थानीय मार्केट ना के बराबर मिल रहा है। इस समय वर्षाती की खेती एक ऐसा चैलेन्ज है, जिसमें चैलेन्जर की हार निश्चित है। फिर भी बहुत सारे किसान आज भी विपरित हालत से लड़ रहे हैं।

मैंने उनके स्वभाविक उत्पादों को प्रोत्साहन देने की नीति बनाई। जैविकता व मिनरल रिचनैस इन उत्पादों की बड़ी शक्ति है। मैंने इसी शक्ति के उपयोग की एक विस्तृत कार्य योजना बनाई। स्थानीय मोटे अनाजों व दालों के उत्पादन को बोनस, मूल्य संरक्षण, इनका उपयोग बढ़ाने हेतु सरकारी व गैर सरकारी प्रयास, नींबू, अखरोट आदि रस्टिक फलों का उत्पादन, रेसा उद्योग, भीमल, तेज पत्ता, गेठी, अखरोट, तिमरू, लेह बेरी, तुन आदि वृक्षों के वृक्षा रोपण को प्रोत्साहन, जैविक दूध से जैविक चीज तैयार करना आदि-2, इस कार्ययोजना के हिस्सा थे।

मैं जानता था कि, ये सारे प्रयास सीमित असर डाल सकते हैं। इन प्रयासों के प्रारम्भ होने से किसान खेती में ठिठका जरूर है, मगर खेती छोड़ चुका किसान केवल आंशिक रूप से पुनः खेत में लौट रहा है, ऐसी मेरी सूचना थी। इस स्थिति का अनुमान लगाते हुये मैंने तय किया कि, मेरी सरकार राम दाने सहित असिंचित खेती वाले गांवों में जो कुछ फल, सब्जी, मोटा अनाज पैदा हो रहा है, उसे प्रोसेस कर मार्केट में पहुचायेगी। इसी नीति के तहत रूद्रपुर में रामदाना प्रोसेसिंग प्लांट लगाया गया और राज्य में मडुवा बियर व मडुवा स्कोच तैयार करने की योजना बनाई गई। इस हेतु दोनों मण्डलों में दो-2 वायनरी व ब्रेबरी लगाने का निर्णय लिया गया। धन की कमी को पूरा करने के लिये भारी विरोध के बावजूद, मैंने मण्डी को शराब का थोक विक्रय कार्य सौंपा व उनके एजेन्ट के रूप में गढ़वाल व कुमांऊ मण्डल निगम को फुटकर विक्रय का दायित्व सौंपा गया। इसी दौरान हमने (नहीं मैंने) यह भी निर्णय लिया कि, शराब निर्माता यदि अपनी शराब में स्थानीय फलों व सब्जियों के जूस का उपयोग करेगा, तो उन्हें राज्य में शराब की बिक्री में 20 प्रतिशत सैल राईट्स दिये जायेंगे। फल खरीद के लिये टनकपुर व कर्णप्रयाग में प्वाइंट तय किये गये।

मेरा मानना है कि, जब तक उत्तराखण्ड के उत्पाद की स्थानीय प्रोसेसिंग नहीं होगी और हर प्रकार का फल व सब्जी बिकेगी नहीं, असिंचित खेती में लाभदायक उत्पादकता नहीं आ सकती है। अभिष्ट साधन के लिये यह आवश्यक था कि, हम राज्य की शराब नीति को फल उत्पादन के साथ जोड़ें। निर्णय तर्क संगत भी था, फलदायक भी था।

मैंने सारे विरोधों को नजर अंदाज कर, जिस प्रकार हैम्प (भांगुला) की वाणिज्यक खेती का कानून बनाया, उसी तर्ज पर उपरोक्त शराब नीति भी बनाई। सरकार के अन्तिम वर्ष में राजनैतिक अनिश्चय के दौर में कुछ लोगों ने मेरे निर्णय का दुरूपयोग किया। लगभग 4 माह तक पूर्व प्रचलित शराब ब्राण्ड की मार्केट आपूर्ति बहुत घटा दी गई। 20 प्रतिशत मार्केटिंग राईट्स की आड़ में कुछ बेस्वाद ब्राण्ड्स को बड़ी मात्रा में बाजार में उतार दिया गया। चन्द्रवंशी, सूर्यवंशी दोनों मुझसे नाराज हो गये। हल्ला उठने पर मुझे सम्पूर्ण निर्णय को ही बदलना पड़ा। परिणाम स्वरूप एक अच्छा विचार व प्रयास बीच में ही मर गया। असिंचित खेती को लाभदायक खेती में बदलने का प्रयास रास्ते में ही समाप्त हो गया। शराब का व्यापार पुनः पुराने सिन्डीकेट के हाथ में आ गया। थैंक्स टू गर्वनर रूल।

यह एक ऐसा निर्णय था जो मुझे सताता भी है, मैं अपने पर झल्लाता भी हॅू। शायद ऐसा निर्णय चुनाव के तत्काल बाद सत्तारूढ़ हुये मुख्यमंत्री को ही लेना चाहिये था। मैं तो बीच में टपका हुआ मुख्यमंत्री था। गलत समय के कारण एक अच्छा निर्णय मर गया। असिंचित खेती का भविष्य पुनः अनिश्चित हो गया।

उत्तराखंड | हरीश रावत को दो साल बाद भी है मलाल, मुख्यमंत्री रहते ये काम नहीं कर पाया

मेरी चेतना में कई निर्णय जिन्हें मैं लेना चाहता था, नहीं ले पाया या लेकर भी लागू नहीं कर पाया, मुझे झकझोरते रहते हैं। व्यक्ति कभी-2 अपनी सोच या योजनाओं से बहुत गहराई से जुड़ जाता है। मैं भी सम्भवतः इस कमजोरी का शिकार हूॅ। मैंने कई सोचें विकसित की, समय की कमी के कारण उन्हें धरती पर नहीं उतार पाया। अब जब भूतपूर्व मुख्यमंत्री हॅू ऐसी सोचों को अपने मानस से नहीं झटक पा रहा हॅू। ऐसा एक निर्णय या सोच जो लागू नहीं हो पायी, शगुन अक्षर गाने वाली महिलाओं को पेंशन देने का भी है, शगुन अक्षर हमारी सभ्यता-संस्कृति का हिस्सा है। शादी-व्याह, पुत्र-पुत्री नामकरण सहित प्रत्येक शुभ मौके पर शगुन अक्षर गाये जाते हैं। दो-चार महिलायें समवेत स्वर में इन मांगलिग गीतों को गाती हैं। ये अक्षर लिपिबद्ध नहीं हैं। सास-बहू को या पुत्री को सिखा जाती है। परम्परा इसी प्रकार जीवित रही और आज भी है।

इस दौरान लता कुंजवाल ने इन्हें लिपिबद्ध कर दिया है। मगर राज्य का मुख्यमंत्री होते हुये मैं शगुन अक्षर गायकों को पेंशन योजना से नहीं जोड़ पाया, इसका मुझे गहरा दुःख है। मेरी सरकार का तंत्र 6 माह तक शगुन अक्षर गायकों को खोजता रह गया। जब तक सूची बनी व मंत्रिमण्डल का निर्णय हुआ, राज्य में चुनाव की आचार संहिता प्रभावी हो गई। मन के भाव मन ही में रह गये। एक मुख्यमंत्री एक छोटे से निर्णय को लागू नहीं कर पाया, मौका चूक गया। कभी-2 एकान्त में, मैं दो लाईनें गुन-गुनाता हॅू। शायद अब मैं यही कर सकता हूॅ।

‘‘शान ए हुकुमत का, इतना गुमान ठीक नहीं,

कौन पूछेगा तुम्हें, सबाब के ढल जाने के बाद’’

(हरीश रावत)

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