CM धामी की घोषणा पूरी, उत्तराखंड में सार्वजनिक अवकाश का आदेश जारी

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CM धामी की घोषणा पूरी, उत्तराखंड में सार्वजनिक अवकाश का आदेश जारी

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उत्तराखंड के लिए बड़ी खबर मिली है। 25 अक्टूबर को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इगास पर्व के मौके पर सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की थी। सीएम की इस घोषणा पर आधिकारिक मुहर लग गई है। अब उत्तराखंड शासन से इस छुट्टी का आदेश जारी हो गया है।  आपको बता दें कि उत्तराखंड में इगास का पर्व चार नवंबर को मनाया जाएगा। उत्तराखंड के इस लोकपर्व के मौके पर सार्वजनिक अवकाश रहेगा। इसे लेकर तैयारियां भी चल रहीं हैं।


 

देहरादून (उत्तराखंड पोस्ट) उत्तराखंड के लिए बड़ी खबर मिली है। 25 अक्टूबर को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इगास पर्व के मौके पर सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की थी। सीएम की इस घोषणा पर आधिकारिक मुहर लग गई है। अब उत्तराखंड शासन से इस छुट्टी का आदेश जारी हो गया है।  आपको बता दें कि उत्तराखंड में इगास का पर्व चार नवंबर को मनाया जाएगा। उत्तराखंड के इस लोकपर्व के मौके पर सार्वजनिक अवकाश रहेगा। इसे लेकर तैयारियां भी चल रहीं हैं।

इगास की छुट्टी की घोषणा करते हुए सीएम धामी ने कहा था कि इगास बग्वाल उत्तराखण्ड वासियों के लिए एक विशेष स्थान रखती है। यह हमारी लोक संस्कृति का प्रतीक है। हम सब का प्रयास होना चाहिए कि अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपरा को जीवित रखें। नई पीढ़ी हमारी लोक संस्कृति और पारम्परिक त्योहारों से जुङी रहे, ये हमारा उद्देश्य है। खास बात यह रही कि सीएम धामी ने यह बात गढ़वाली में कही थी।

क्या होता है इगास?

उत्तराखंड के गढ़वाल में  सदियों से दिवाली को बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। कुमाऊं के क्षेत्र में इसे बूढ़ी दीपावली कहा जाता है। इस पर्व के दिन सुबह मीठे पकवान बनाए जाते हैं। रात में स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद भैला जलाकर उसे घुमाया जाता है और ढोल नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर लोक नृत्य किया जाता है। मान्यता है कि जब भगवान राम 14 वर्ष बाद लंका विजय कर अयोध्या पहुंचे तो लोगों ने दिए जलाकर उनका स्वागत किया और उसे दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया। कहा जाता है कि गढ़वाल क्षेत्र में लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद मिली। इसलिए यहां पर दिवाली के 11 दिन बाद यह ईगास मनाई जाती है।

वहीं, सबसे प्रचलित मान्यता के अनुसार गढ़वाल के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महीपति शाह की सेना के सेनापति थे। करीब 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा। इसी बीच बग्वाल (दिवाली) का त्यौहार भी था, परंतु इस त्योहार तक कोई भी सैनिक वापस न आ सका। सबने सोचा माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने भी दिवाली (बग्वाल) नहीं मनाई। लेकिन दीपावली के ठीक 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दवापाघाट युद्ध जीत वापस लौट आए। इसी खुशी में दिवाली मनाई गई।

खास बात ये है कि यह पर्व भैलो खेलकर मनाया जाता है। तिल, भंगजीरे, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गठ्ठर बनाकर इन्हें विशेष रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है। बग्वाल के दिन पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक किया जाता है। फिर ग्रामीण एक स्थान पर एकत्रित होकर भैलो खेलते हैं। भैलो पर आग लगाकर इसे चारों ओर घुमाया जाता है। कई ग्रामीण भैलो से करतब भी दिखाते हैं।  पारंपरिक लोकनृत्य चांछड़ी और झुमेलों के साथ भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोकगीतों के साथ मांगल व देवी-देवताओं की जागर गाई जाती हैं।

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