हम बुलेट ट्रेन में बैठकर पुखरायां से होकर गुजर जाएंगे, मरने वाले तो मर ही गए

आपका ब्लॉग के लिए आशीष तिवारी | ये अच्छा है कि देश बुलेट ट्रेन में बैठकर रेल का सफर करने के सपने देख रहा है या शायद राजनीतिक नींद या राजनीतिक बेहोशी के हाल में देश को ये सपना दिखाया जा रहा है। अच्छा है कि देश सपना देख रहा है। हालांकि ऐसे सपने देखने
 

आपका ब्लॉग के लिए आशीष तिवारी | ये अच्छा है कि देश बुलेट ट्रेन में बैठकर रेल का सफर करने के सपने देख रहा है या शायद राजनीतिक नींद या राजनीतिक बेहोशी के हाल में देश को ये सपना दिखाया जा रहा है। अच्छा है कि देश सपना देख रहा है। हालांकि ऐसे सपने देखने के लिए आंखों की जरूरत नहीं होती और आंखों में रोशनी की जरूरत भी नहीं होती है। लिहाजा अंधे भी ऐसे सपनों को बिना भेदभाव के देख सकते हैं।

हम अक्सर इस बात को लेकर खुशी से फूले नहीं समाते हैं कि हमारे पास दुनिया के बड़े रेल नेटवर्क में से एक नेटवर्क है। हालांकि ये बात भी सच है कि दुनिया के किसी देश के प्लेटफार्म पर आपको जानवरों में सांड, कुत्ता, गाय, बंदर और इंसानों में भिखारी, कुष्ठ रोगी, पागल सबके दर्शन एक साथ हो जाएं। आप चाहें तो इस उपलब्धि के लिए भी अपना हाथ अपनी पीठ पर ले जाकर उसे थपाथपा सकते हैं। हाथ न पहुंचे तो किसी दोस्त का सहयोग ले सकते हैं।

दुनिया के इस बड़े रेल तंत्र की तल्ख सच्चाई यही है कि यहां रेल दुर्घटनाओं के बाद सिर्फ और सिर्फ जांच कमेटी बैठाई जाती है। ये जांच कमेटी बैठ कर कब उठती है, क्या करती है, कितने लोगों को उठाती है, कितनों को बैठाती है ये किसी को नहीं पता। इस उठक बैठक में हम अक्सर ये भी भूल जाते हैं कि कोई कमेटी भी बनाई गई थी। रेल नेटवर्क को संचालित करने वाला तंत्र इस कमेटी की जांच से क्या सीख लेता है ये देश की आम जनता को नहीं पता है।

एक मोटे आंकड़े के मुताबिक रेलवे में हादसों को न्यूनतम करने के लिए तकरीबन एक लाख कर्मियों की नियुक्ति करने की आवश्यकता है। एक अंग्रेजी अखबार के दावों के मुताबिक देश में एक लाख बारह हजार किलोमीटर लंबे रेल नेटवर्क में पिछले तीन वर्षों में 50 फीसदी हादसे डीरेलमेंट की वजह से हुए हैं। इनमें से 29 फीसदी के करीब रेल लाइन के दुरुस्त न होने की वजह से हुए। जानकार बताते हैं कि देश में रेल सुरक्षा को लेकर सरकारें गंभीर नहीं रहीं हैं। रेल हादसों को रोकने के लिए सुझाए गए कई सुझावों को धरातल पर उतारने की कोशिश नहीं की गई है। 2012 में काकोदर कमेटी की सिफारशों को भी पूरी तरह नहीं माना गया है। गौरतलब है कि काकोदर कमेटी ने 2012 में ट्रेन के सफर को सुरक्षित बनाने के लिए कई सुझाव दिए थे।

फिलहाल एक ढर्रे पर चल रही ट्रेन में सुरक्षित सफर की उम्मीदों के सच का अर्द्ध सत्य यही है कि हम भगवान भरोसे चलती ट्रेनों में एक चादर, प्लास्टिक की एक चटाई और एक कंबल के साथ चढ़ तो जाते हैं लेकिन हमें ये नहीं पता होता कि सफर के अंत में हम खुद उतरेंगे या फिर हमें उतारा जाएगा। फिर भी खुश हो लीजिए क्योंकि आप बुलेट ट्रेन के सपने देख सकते हैं और सपने देखने के लिए आंखे खुली रखने की जरूरत नहीं होती। कर लीजिए आंखें बंद, पुखरायां गुजर जाएगा।

(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)