सर्वधर्म समभाव की मिसाल है कैंची धाम, जानिए नीम करौली बाबा की महिमा

भवाली (उत्तराखंड पोस्ट ब्यूरो) 15 जून को बाबा नीम करौली महाराज के कैंची धाम में विशाल मेला लगता है, जो सर्वधर्म समभाव की मिसाल है। जहा हर वर्ग, धर्म का भेदभाव भूल सभी बाबा नीम करौली महाराज के दर्शन को उमड़ते हैं।आस्था ऐसी कि बगैर निमंत्रण दूरदराज से लोग श्रद्धालुओं का यहा रेला लगता है।श्रद्धालु
 

भवाली (उत्तराखंड पोस्ट  ब्यूरो) 15 जून को बाबा नीम करौली महाराज के कैंची धाम में विशाल मेला लगता है, जो सर्वधर्म समभाव की मिसाल है। जहा हर वर्ग, धर्म का भेदभाव भूल सभी बाबा नीम करौली महाराज के दर्शन को उमड़ते हैं।आस्था ऐसी कि बगैर निमंत्रण दूरदराज से लोग श्रद्धालुओं का यहा रेला लगता है।श्रद्धालु कहते भी हैं की धाम में विराजे हनुमान के रूप में उन्हें बाबा नीम करौली महाराज के साक्षात दर्शन होते हैं।

कैंची धाम मेले की शुरुआत वर्ष 1964-65 के आसपास हुई थी। इस अवधि में संत नीम करौली महाराज ने यहा मंदिर स्थापित कर मेले की परंपरा शुरू की थी। हर वर्ष 15 जून को कैंची धाम में लाखों भक्त उमड़ते हैं। मगर सभी कुछ शातिपूर्ण ढंग से निपट जाता है। अधिकारी-कर्मचारी व श्रद्धालु इसे बाबा का आशीर्वाद मानते हैं।

बाबा ने किसी प्रकार का बाह्य आडम्बर नहीं अपनाया, जिससे लोग उन्हें साधु बाबा मानकर उनका आदर करते। उनके माथे पर न त्रिपुण्ड लगा होता न गले में जनेऊ या कंठ माला और न देह पर साधुओं के से वस्त्र ही। जन समुदाय के बीच में आने पर आरंभ में आप केवल एक धोती से निर्वाह करते रहे, बाद में आपने एक कम्बल और ले लिया। अन्य लोगों की क्या कहें, साधक स्तर के साधु आपको सेठ समझने लगते पर आपके नंगे पैरों को देख भ्रमित हो जाते। कभी उनके आश्रम में ही कोई नवागन्तुक उन्हीं से बाबा के बारे में पूछने लगता और वह कहते, यहां बाबा-वाबा नहीं है, जाओ हनुमान जी के दर्शन करो। वह किसी को भी प्रभावित करना नहीं चाहते थे। इस कारण आप में किसी प्रकार का बनावटीपन नहीं दिखाई दिया। वे जिससे भी मिलते सहज और सरल भाव से।

कुछ भक्तों का कहना है कि बाबा जी ने आकाश तत्त्व को जीत लिया था इसलिए वह पलक झपकते ही कहीं पर भी, किसी भी जगह उपस्थित हो सकते थे। साथ ही वह धरती के किसी भी तत्त्व या प्रभाव के प्रति अनासक्त थे। जैसे स्वच्छन्द वायु किसी भी वस्तु से प्रभावित नहीं होती वैसे ही बाबा भी वस्तु या वातावरण से पूर्णत: अप्रभावित रहते थे, किन्तु इस अनासक्त भाव में रहते हुए भी वह दीन-दुखियों के लिए सहयोग करने में पीछे नहीं रहते थे।

महाराज जी लखनऊ में अपने एक भक्त के यहां ठहरे थे और वहां भक्तों का जमघट लगा था। घर का सेवक भी एक रुपया टेंट में रखकर उनके दर्शनों के लिए वहां पहुंचा। जब उसने प्रणाम किया तो महाराज जी ने कहा अपनी कमर में खोसकर मेरे लिए रुपया लाया है। उसने हामी भरी। महाराज जी ने कहा तो मुझे देता क्यों नहीं? उसने रुपया निकालकर दिया और महाराज जी ने उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण किया और बाद में अपने भक्तों से कहा इसका एक रुपया, आपके बीस हजार से अधिक मूल्यवान है।

एक अंधेरी रात में एक भक्त महाराज जी के साथ जंगल में थे। उसने कहा कि महाराज जी मुझे ईश्वर दिखलाएं। महाराज जी ने उससे कहा जरा मेरा पेट मलो। वह भक्त पेट मलने लगा। उसे प्रतीत होने लगा कि पेट बराबर बढ़ता ही जा रहा है। अंत में उसे पेट पहाड़ सा प्रतीत होने लगा। महाराज जी खर्राटे भी भरने लगे। उनके खर्राटे के स्वर सिंहनाद के समान थे। उस भक्त का कहना है कि यह क्रीड़ा मात्र थी परन्तु यदि उनकी कोई परीक्षा लेना चाहे तो वह ऐसा कुछ नहीं दिखाते हैं।

मन्दिर की प्रतिष्ठा के साथ गांव में हर वर्ष वैशाख शुल्क पक्ष की त्रयोदशी पर एक माह का मेला आयोजित करने की व्यवस्थता कर दी। महाराज जी ने घोषणा कि दुकानों में कोई ताला नहीं लगाएगा। क्योंकि मेले मे चोरी नहीं होगी जो आज तक यथावत है।

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