शिक्षक दिवस विशेष | वो जिस कलम से हदीसे – अवाम लिखता है…
क़रीब 80 साल पहले सियालकोट शकरगढ़ तहसील के कंजरूड़ गाँव में दो दोस्त हाथ में तख़्ती और झोले में क़ायदा (क़िताब) लेकर मदरसे की और निकल जाते थे ये वो वक़्त था जब हिन्दू-मुस्लिम दोनों अगर स्कूल नहीं होता था तो मदरसे जाते थे। हिन्दू बच्चों के कई माँ-बाप जो मदरसा नहीं बोल पाते थे
क़रीब 80 साल पहले सियालकोट शकरगढ़ तहसील के कंजरूड़ गाँव में दो दोस्त हाथ में तख़्ती और झोले में क़ायदा (क़िताब) लेकर मदरसे की और निकल जाते थे ये वो वक़्त था जब हिन्दू-मुस्लिम दोनों अगर स्कूल नहीं होता था तो मदरसे जाते थे।
हिन्दू बच्चों के कई माँ-बाप जो मदरसा नहीं बोल पाते थे रमदसा बोल देते थे। उस मदरसे में अध्यापक थे मौलवी गुलाम गौंस जिनके हाथ में हमेशा छड़ी रहती थी और बच्चे छड़ी से बिल्कुल सीधे रहते थे। आज की तरह नहीं, कि बच्चे को ऊँचा भी बोलने पर अध्यापक पर कार्यवाही हो जाती है।
माँ-बाप पहली बार जब बच्चे को मदरसे छोड़कर आते तो मौलवी गुलाम गौंस से कहकर आते थे, हड्डिया हमारी और खाल आपकी है मौलवी साहब। कुछ ऐसा ही दोनों दोस्तों के साथ हुआ दोनों जमकर शरारती थे मगर पढ़ने में अच्छे थे।
एक का नाम हरदयाल था, दूसरे का राजेन्द्र। जब इनकी शरारत बढ़ी तो मौलवी साहब की छड़ी भी ज्यादा चलने लगी। ये दोनों अब स्कूल से टपकर बगीचे में मस्ती करते थे। कई दिन बीत जाने के बाद मौलवी साहब ने बच्चों से उन दोनों के बारे में पूछा तो पता चला की दोनों घर से तो आते हैं, मगर कहीं और निकल जाते हैं।
उसी वक़्त मौलवी साहब उन्हें खोजने निकल पड़े। खोजते-खोजते बगीचे में जा पहुंचे और पेड़ के पीछे से उन्हें देखने लगे।
हरदयाल गालियों के साथ तुकबंदी कर शेर बोल रहा था और राजेन्द्र उलटे सीधे संवाद बोलकर अभिनय कर रहा था। काफ़ी देर तमाशा देखने के बाद मौलवी साहब ने दोनों को आवाज़ मारी तो दोनों डरकर भागने लगे, लेकिन फिर रुक गए।
आज मौलवी साहब की छड़ी खामोश थी, उन्होंने दोनों को पास बैठाया और समझाने लगे, मुझे नहीं पता था की तुम दोनों इतने क़ाबिल हो। बोले- हरदयाल तू इतनी अच्छी उर्दू और फ़ारसी का इस्तेमाल अपने शेरों में कर रहा था, अगर इसमें से गालियां निकाल दे तो एक दिन अच्छा शायर बनेगा और राजेन्द्र तेरे अंदर तो गज़ब की काबलियत है, इसे जाया मत कर, तुझे एक दिन पूरा हिंदुस्तान देखेगा। लेकिन तुम दोनों तभी कामयाब होगे जब मन लगाकर पढ़ोगे।
उनके मन में मौलवी साहब की यह बात घर कर गई। दोनों पढ़ने के लिए लाहौर आ गए। वक़्त ने बाज़ी पलटी तो बंटवारे के बाद दोनों परिवारों को दिल्ली में घर और संघर्ष साथ-साथ मिला।
हरदयाल की नौकरी लग गई, वो नौकरी के साथ-साथ शायरी करने लगा और खूब करने लगा और राजेन्द्र मुंबई चला गया और संघर्ष कर क़ामयाबी पाई।
आज राजेन्द्र को लोग अभिनेता जुबली कुमार पदमश्री राजेन्द्र कुमार के नाम से जानते हैं और हरदयाल को उस्ताद शायर हरदयाल सिंह दत्ता ” कँवल ज़ियाई” के नाम से।
ये मौलवी गुलाम गौंस की दुआओं और उनकी छड़ी का नतीज़ा था दोनों मरते दम तक साथ रहे। ख़ुदा तीनों को जन्नत-नशीं करे।
एक ग़ज़ल ” कँवल ज़ियाई” साहब की
हर एक लफ्ज़ फ़ज़ाओं के नाम लिखता है
वो ताइरों के परों पर कलाम लिखता है
नई उड़ान को कहता हैं फैज़ साक़ी का
नए ख़याल को वो अक्स – ए – जाम लिखता है
यकीन कीजिये उसमे गज़ब का जादू है
वो जिस कलम से हदीसे – अवाम लिखता है
अजब कुमाश का इंसान है वो दीवाना
जो अपने जुर्म फ़रिश्तों के नाम लिखता है
तवील उम्र के अफ़साने कैसे लिक्खेगा
जो एक पल को भी उम्रे – दवाम लिखता है
वो एक ज़ख्म है कागज़ के नर्म सीने पर
वो खुद परस्त सहर को भी शाम लिखता है
वो शेर – शेर भी है तंज़ भी मुलामत भी
जिसे वो अहल- ए- सियासत के नाम लिखता है
हरदयाल सिंह दत्ता कँवल जिआई 1954 में पहले रानीखेत फिर देहरादून आकर बस गए थे। इसी कारण राजेंद्र कुमार का भी उत्तराखंड से बहुत लगाव था और वो समय समय पर देहरादून आते रहते थे।
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