पूर्व डीजीपी स्व. कंचन चौधरी को याद कर भावुक हुए आईजी गुंज्याल, लिखा – मुट्ठी भर सी, कलश में समायी…

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पूर्व डीजीपी स्व. कंचन चौधरी को याद कर भावुक हुए आईजी गुंज्याल, लिखा – मुट्ठी भर सी, कलश में समायी…

देहरादून (उत्तराखंड पोस्ट) उत्तराखंड के आईजी संजय गुंज्याल ने उत्तराखंंड और देश की पहली महिला डीजीपी कंचन चौधरी भट्टाचार्य को याद करते हुए एक विशेष आलेख लिखा है। नीचे पढ़िए और इसे आप ज्यादा से ज्यादा लोगों तक शेयर करें। मुट्ठी भर सी, कलश में समायी, कभी लड़ी थीं, दीवारों से, आबो-हवाओं से, खूंटों से,


पूर्व डीजीपी स्व. कंचन चौधरी को याद कर भावुक हुए आईजी गुंज्याल, लिखा – मुट्ठी भर सी, कलश में समायी…

देहरादून (उत्तराखंड पोस्ट) उत्तराखंड के आईजी संजय गुंज्याल ने उत्तराखंंड और देश की पहली महिला डीजीपी कंचन चौधरी भट्टाचार्य को याद करते हुए एक विशेष आलेख लिखा है। नीचे पढ़िए और इसे आप ज्यादा से ज्यादा लोगों तक शेयर करें।

मुट्ठी भर सी, कलश में समायी,
कभी लड़ी थीं, दीवारों से,
आबो-हवाओं से, खूंटों से,
(लक्ष्मण) रेखाओं से,
बंद कलश से निकल, यूँ ही तो नहीं घुलती चली,
नासमझ में आने वाले गूढ़ मंत्रों के उच्चारणों के दरम्यान,
मर्यादा और वर्जनाओं के नाम पर,
अब-ना-विदा!

मानव जीवन चक्र में शरीर का जाना मुकर्रर है। आपाधापी भरी जिंदगी की अंधी दौड़ में बस यह पता नहीं कि कब, कहां, किसको, कैसे जाना है। कंचन चौधरी भट्टाचार्य पूर्व पुलिस महानिदेशक जैसे सहज, सरल व्यक्तिव का जाना क्षणभंगुर जगत में मानवजीवन के वास्तविक दर्शन पर मंथन करने को विवश कर जाता है।

पूर्व डीजीपी स्व. कंचन चौधरी को याद कर भावुक हुए आईजी गुंज्याल, लिखा – मुट्ठी भर सी, कलश में समायी…

मुझे याद है कि पुलिसिंग के रोजमर्रा के तनाव, कानून व्यवस्था के अचानक बगैर आहट की आती समस्याओं से जूझती डीजीपी मैडम बगैर किसी पूर्वाग्रहों के जटिल समस्याओं को भी सरलता से निदान करने की कोशिश में रहती थी। जनता की समस्याओं को सहज भाव के साथ बिना किसी लाग लपेट के, मानवीय संवेदनाओं को सर्वोपरि रखते हुए निदान की उनकी सफल या असफल कोशिश, उन्हें पुलिस अधिकारियों के सेट ढांचे से कुछ अलग करती थी। क्योंकि व्यावहारिक पुलिसिंग के स्थापित नॉर्मस और कानूनी दाव-पेंच से ज्यादा इंसानियत के तकाजे से समस्या को देखने का उनका तरीका किताबी नहीं था।

पूर्व डीजीपी स्व. कंचन चौधरी को याद कर भावुक हुए आईजी गुंज्याल, लिखा – मुट्ठी भर सी, कलश में समायी…

याद अभी भी ताजा है कि मैं 2006 में एसएसपी देहरादून के पद पर था, अचानक पुलिस मुख्यालय से बुलावा आया। डीजीपी कार्यालय में एक महिला पीड़िता उसके साथ हुई ज्यादती और कष्टो को सिसकते हुए आंसुओ के बीच बताने का प्रयास कर रही थी। दो घड़ी पहले अनजान पीड़िता को पलभर में ही मैडम ने इतना अपना बना लिया और उस फरियादी महिला के दुख को महसूस करते हुए वह स्वयं अपने आंसुओ को रोक नहीं पायी। अविरल बहती अश्रुधारा से भरे डीजीपी मैडम के चेहरे की तरफ देखने का साहस मुझ में तब भी नहीं था। पुलिस सेवा अवधि बढ़ने के साथ-साथ अनजान के दु:ख दर्द के प्रति ”सरकारी प्रतिक्रिया” हम ज्यादा सटीक करने लगते है और पुलिस नौकरी की धुन में तमाम तरह के अपराधों को देखते- सुनते, संवेदनाये कभी-कभी मौन हो जाती है। मुझे आज भी याद है कि जाते जाते महिला ने कहा ”मैडम आपने सुना, समझा और महसूस किया तो मुझे ऐसा अहसास हुआ की न्याय होने से पहले ही ‘न्याय जैसा’ कुछ मिल गया हो।’

कहने को छोटा लेकिन समझने को बहुत, एक और छोटी घटना साझा करना चाहूंगा कि एसएसपी देहरादून के रूप में मैंने उन्हें फोन पर किसी घटना की ब्रीफिंग रूटीन में की। लगा बाते समाप्त हो चली थी, बोलने को कुछ शेष ना था कि कॉल ड्रॉप हो गया। क्योंकि बात समाप्त थी और बस अभिवादन की औपचारिकता भर थी तो मैंने पुन: कॉल करना उचित नहीं समझा। तभी उनका कॉल आया तो माफी के साथ मैंने कहा कि ”मैडम ब्रीफिंग और वार्ता तो पूरी हो गयी थी, जिस वजह से मैने कॉलबैक नहीं किया” मैडम के जवाब में मासूमियत और सादगी का पुट था जब उन्होंने कहा ”बट वी डिन्ट से बाय टू ईच अदर (पर हमने एक दूसरे को अलविदा नहीं कहा)”। तब भी अहसास हुआ कि आपके व्यक्तित्व की कुछ खूूबियां आपको मानवीयता के और करीब अलग दर्जे पर जरूर ले जाती है।
वर्दीधारी पदानुक्रम और रेजिमेण्टेशन के सेट मानकों का अतिक्रमण करती इस ”सहृदय महिला शक्ति” के व्यवहार को अलविदा कहने का किसको साहस!

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