उत्तराखंड | पलायन को मुंह चिढ़ाती नैनीताल जिले की ये तस्वीर, आप भी करेंगे तारीफ

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उत्तराखंड | पलायन को मुंह चिढ़ाती नैनीताल जिले की ये तस्वीर, आप भी करेंगे तारीफ

नैनीताल (उत्तराखंड पोस्ट) अपने हुनर और प्रतिभा का लोहा उत्तराखंड हमेशा से मनवाता आया है। लेकिन पहाड़ो से हो रहा पलायन बड़ी समस्या बन चुका है। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। पुस्तैनी घर, जम़ीन सब खंडहर और बंजर होते जा रहे हैं। कमाई के साधन और सुविधाओं का न होना पलायन का बड़ा


उत्तराखंड | पलायन को मुंह चिढ़ाती नैनीताल जिले की ये तस्वीर, आप भी करेंगे तारीफ

नैनीताल (उत्तराखंड पोस्ट) अपने हुनर और प्रतिभा का लोहा उत्तराखंड हमेशा से मनवाता आया है। लेकिन पहाड़ो से हो रहा पलायन बड़ी समस्या बन चुका है। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। पुस्तैनी घर, जम़ीन सब खंडहर और बंजर होते जा रहे हैं। कमाई के साधन और सुविधाओं का न होना पलायन का बड़ा कारण है।

लंबे संघर्ष औऱ आंदोलन के बाद जन्मे एक छोटे से राज्य की ये कहानी बहुत ही डरावनी लगती है। हालांकि सरकार पहाड़ के पानी और पहाड़ की जवानी को जवां होते राज्य के काम आने के लिए भरसक प्रयास तो कर रही है लेकिन तस्वीर बहुत ज्यादा नहीं बदली है।

इस सब के बीच प्रदेश के कई हिस्सों से अच्छी ख़बर भी आती है जो दूसरों को प्रेरणा देने का काम करती है। हम बात कर रहे हैं नैनीताल जिले के तल्ला गेठिया गांव की। जिला मुख्यालय से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित यह गांव हस्तशिल्प को लेकर चर्चा में है।

कर्तव्य कर्मा नाम के एक एनजीओ ने प्रोजेक्ट उद्योगिनी से इस गांव की तस्वीर ही बदल दी। यहां अब लोग अपने घर से ही काम करते हैं। उनकी आजीविका भी बेहतर है और उन्हें ना तो घर  और न ही जमीन बेचने की ज़रूरत है। सबसे खुशी की बात तो यह है कि यहां के लोग शहरों में बसने के बजाय अपने गांव में ही रहना चाहते है।

ऐसे हुई प्रोजेक्ट उद्योगिनी की शुरुआत – कई साल बड़े शहरों में काम करने के बाद गौरव अग्रवाल गांव की तरफ लौट गए। इस तरह का काम करने की तैयारी तो 2011 से ही शुरु गई थी, लेकिन साल 2014 से गौरव अपने मिशन में जुट गए।

इसी बीच गौरव की मुलाकात नैनीताल ज़िले के गांव तल्ला गेठिया में रहने वाली रजनी देवी से होती है। जो कई वर्षों से गांव की महिलाओं को सिलाई का प्रशिक्षण देने का काम कर रही थीं। रजनी देवी के साथ मिलकर गौरव ने गांव की कई महिलाओं से मुलाकात की और उनके बीच बैठकर सबसे पहले एक मुलाकात को अंजाम दिया।

गौरव ने उनके सिलाई को हुनर को पहचाना और रजनी देवी के साथ मिलकर एक प्लान बनाया। इसके बाद गौरव औऱ रजनी देवी ने मिलकर गांव की महिलाओं से कुछ नया करने की बात कही तो किसी ने बैग बनाने को कहा तो किसी ने जूट बैग्स बनाने को कहा।

लेकिन कुछ अलग करने के जुनून ने गौरव ने कपड़े की ज्वैलरी बनाने की बात महिलाओं से कही। ये सुनने में अटपटा ज़रूर था लेकिन महिलाओं के लिए ये एक नई चुनौती जैसा भी था। गौरव ने खुद अपने हाथों से पहले ज्वैलरी बनाने सीखी और फिर गांव की ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को बुलाकर सबको इसकी ट्रेनिंग दी गई। सबके लिए यह काम बेहद कठिन था, कुछ महिलाएं पीछे भी हट गयी लेकिन रजनी देवी और उनकी बेटी नेहा आर्या ने हार नहीं मानी। वो लगातार इसको बनाने की प्रैक्टिस करते रहे।

गौरव ने हैंडीक्राफ्ट के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर पवन बिष्ट के साथ मिलकर इस पूरे प्रोजेक्ट पर रिसर्च की और इस प्रोजेक्ट को नाम दिया गया उद्योगिनी

इसके बाद इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत कपड़े की ज्वैलरी बनाने का काम शुरु हो गया। गांव की महिलाओं को जोड़कर पहले एकस्वयं सहायता समूह – हिमानी का निर्माण कराया गया जिसके बाद महिलाओं का जुड़ने का सिलसिला शुरु हो गया। देखते ही देखते गांव ही नहीं दूर दूर की गांव की करीब 35 महिलाओं ने कर्तव्य कर्मा संगठन से जुड़ने का मन बना लिया। क्योंकि वो अपने हाथों से कपड़े की ज्वैलरी बनाने की कला में माहिर होना चाहती थीं। तीन महीने की ट्रेनिंग के बाद गांव की महिला को स्टाइपेंड मिलना शुरु होता है। और फिर काम के आधार पर उनका मानदेय तय किया जाता है। इससे भी ज्यादा खास बात ये कि गांव की इन महिलाओं को विश्वास ही नहीं होता कि उनके अपने हाथ में इतना हुनर छुपा हुआ है।

फैबरिक ज्वैलरी बनी उत्तराखंड की नई पहचान- कर्तव्य कर्मा संस्था की मुहिम धीरे धीरे अपना रंग जमाने लगी है। उत्तराखंड की कला और संस्कृति जो परंपरागत तरीके से आगे बढ़ती चली आ रही थी उसमें तल्ला गेठिया गांव की महिलाओं का ये प्रयास एक नया अध्याय जोड़ चुका है। आज तल्ला गेठिया गांव की पहचान फैबरिक ज्वैलरी बनाने वाले गांव के तौर पर बन चुकी है। कपड़े की ज्वैलरी हो या फिर राम झोला, कुशन कवर्स, कोस्टर्स, जूट बैग्स हों या फिर छोटे पर्स और पाउच, ये सभी प्रोडेक्ट बिल्कुल नए तरीके के हैं।

नैनीताल या उसके आस-पास घूमने आने वाले लोगों को जब ये पता चलता है कि यहीं पास में तल्ला गेठिया गांव में कपड़े की खूबसूरत ज्वैलरी बनाने का काम होता है तो लोग दौड़े चले आते हैं। आज कारवां बढ़ते बढ़ते 45 महिलाओं तक पहुंच चुका है। जिसमें रजनी देवी हैंडीक्राफ्ट ट्रेनर के तौर पर, नेहा आर्या ज्वैलरी एक्सपर्ट के तौर पर और पूजा और फिरोजा ज्वैलरी ट्रेनर के तौर पर संस्था में काम कर रही हैं। हालांकि यहां कई तरह के प्रोडक्ट्स बनाए जा रहे हैं लेकिन खास प्रोडक्ट है कपड़े की ज्वैलरी जो पूरीतरह से हैंडमेड है।

इस ज्वैलरी की खास बात ये है कि ये पूरी तरह से अपसाइकल्ड और ईकोफ्रेंडली प्रोडक्ट है। और तो और इसे सावधानी से धोकर दोबारा पहना भी जा सकता है। ये ज्वैलरी काफी मनमोहक और आकर्षक हैं। सबसे खास बात ये है कि ज्वैलरी में जितने भी नए डिज़ाइन बाज़ार में आते हैं वो किसी डिज़ाइन आर्टिस्ट के द्वारा बताए हुए नहीं बल्कि महिलाओं के द्वारा ही बनाए हुए होते हैं।

किसी भी ज्वैलरी के नए डिज़ाइन के बारे में पहले ये महिलाएं खुद सोचती हैं फिर उसे नई तरीके से बनाती हैं और फिर उसे सबके राय मश्विरे से फाइनल करती हैं और फिर उसी को और बेहतर बनाने का काम किया जाता है। इतनी प्रक्रियाओं से गुज़रने के बाद ये ज्वैलरी बेहद आकर्षक बनती हैऔर लोगों का दिल लूटने में देर नहीं लगाती।

पहाड़ी हाट’ ने मचाई विदेशों में धूम –  गांव की इन महिलाओं के प्रोडक्ट्स को विदेशी लोग काफी पसंद करते हैं। पायलट बाबा आश्रम में विदेशी सैलानियों का तांता लगा रहता है और वो गांव में इन महिलाओं के काम को देखने नीचे उतर आते हैं और फिर खरीददारी भी करते हैं। महिलाओं द्वारा बनाए जा रहे इन प्रोडक्टस् को ‘पहाड़ी हाट’ नाम से बाज़ार में लॉन्च भी किया गया है।

सिंगापुर, जकार्ता और कैलीफोर्निया जैसी जगहों के अलावा मुंबई, पुणे, फरीदाबाद और गुड़गांव में पहाड़ी हाट के कुछ प्रोडेक्ट्स लगातार जाते हैं। यही नहीं मेले और एक्ज़ीबीशन में भी पहाड़ी हाट के प्रोडेक्ट्स की काफी धूम रहती है। इसके अलावा महिलाओं द्वारा बनाए जा रहे ये प्रोडक्ट्स महिला एंव बाल विकास मंत्रालय द्वारा भी मान्य हो चुके हैं। इन प्रोडेक्ट्स कोइसी मंत्रालय की सरकारी वेबसाइट महिला ई-हाट पर प्रदर्शित भी किया गया है।

पहाड़ी हाट ही नाम क्यों? हाट का मतलब होता है बाज़ार। पहाड़ी हाट यानी ये पहाड़ का बाज़ार है। देखा जाए तो पहाड़ी हाट उत्तराखंड के कल्चर को समर्पित एक कॉन्सेप्ट है। यहां महिलाएं पहाड़ के उत्पादों पर काम कर रही हैं उन्हें विशेष पहचान दिलाने को बेताब हैं। पहाड़ की जिन्दगी बेहद कठिन होती है। सुख-सुविधाओं के आभाव में भी यहां की महिलाएं पहाड़ की संस्कृति को बचाएरखने में सफल हैं। आज बाज़ार बड़ा हो चुका है। विदेशों से चीज़े मंगाना भी आसान हो चुका है। देश में हर कोई विदेशी प्रोडक्ट को अपना रहा है लेकिन जो लोग पहाड़ की संस्कृति, वहां के उत्पाद, खान-पान की चीज़ें और हाथ से बनाए गए प्रोडक्ट्स पसंद करते हैं उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। लिहाज़ा पहाड़ी हाट उन लोगों का अपना बाज़ार होगा तो पहाड़और वहां के प्रोडक्ट्स को दिल से पसंद करते हैं।

यूनिवर्सिटी के बच्चे NGO में करना चाहते है इंटर्नशिप- गांधीनगर स्थित धीरू भाई अंबानी इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ क्राफ्ट एंड डिज़ाइन,जयपुर , टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस, एनआईएफटी रायबरेली , दिल्ली यूनिवर्सिटी, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के बच्चे यहां एनजीओ में इंटर्नशिप करने के लिए अपना मन बना चुके हैं। यही नहीं निफ्ट रायबरेली जैसे संस्थान के बच्चे भी हमारे एनजीओ के साथ मिलकर काम करने का मन बनाते हैं। उन्हें महिलाओं के हाथ से बनी ज्वैलरी और उसके डिज़ाइन्स बेहद पंसद आते हैं।

 ‘’गांव टू ग्लोबल’’ एक सोच ने बनाई दुनियाभर में पहचान  ये दूसरे प्रोजक्ट की ही तरह कोई आम प्रोजेक्ट लग सकता है। क्योंकि गांव में कई संस्थाएं काम भी कर रही हैं। लेकन यहां सवाल सोच का है। उसे लागू करने का है। सामाजिक बदलाव लाने का है। तल्ला गेठिया गांव पूरी तरह बदल रहा है। जहां गांव को लोग जानते तक नहीं थे वहां अब विदेशियों का तांता लगने लगा है। ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड्स, रूस, जापान और अमेरिका तक से विदेशी सैलानी यहां आकर ज्वैलरी खरीदकर जाते हैं।

महिलाओं को विदेश में ट्रेनिंग देने को आता है बुलावा- कर्त्व्य कर्मा के सेंटर पर जो भी काम होता है विदेशी ना सिर्फ उसेखरीदने का शौक रखते हैं बल्कि यहां से कई सैलानी ट्रेनिंग लेकर भी गए हैं। जिन्होंने यहां की महिलाओं को विदेश में ट्रेनिंग देने का बुलावा भी भेजा है। ये सब गांव की महिलाओं के लिए किसी सपने से कम नहीं लगता। लेकिन जब बात सामने होती है जब विदेशी उन्हें अपने यहां ले जाने का प्रस्ताव देते हैं तब उन्हें अपने हुनर पर यकीन और बढ़ जाता है। विदेशियों से जब भी अपने काम की तारीफ ये महिलाएं सुनती हैं तो उनका सपना जैसे पूरा होने जैसा लगता है।

प्रोडक्ट की ब्रैंड एम्बैसेडर है गांव की महिलाएं-  कर्तव्य कर्मा संस्था ने महिलाओं द्वारा बनाए जा रहे पहाड़ी हाट के प्रोडक्ट को महिला सशक्तिकरण का मज़बूत आधार माना है। काम को पहचान मिली, गांव की पहचान भी होने लगी लेकिन इन हुनरमंद महिलाओं की खुद की पहचान अब तक नहीं बनी जिनके उत्थान का मकसद लेकर संस्था ने काम शुरु किया था।

इसके बाद गांव में बनने वाले प्रोडक्ट्स को बेचने के लिए इन्हीं महिलाओं को मॉडल के तौर पर आगे किया गया। यानी कान के झुमके और गले का हार पहनकर ये महिलाएं खुद ही अपने प्रोडक्ट की ब्रैंड एम्बैसेडर बन गईं।

हालांकि गांव की महिलाएं अभी इस काम को करने में शर्माती भी हैं क्योंकि समाज के दायरे ने अब भी इन महिलाओं को दहलीज़ लांघने से रोक रखाहै लेकिन परिवार वालों की अनुमिति के बाद उन्हें अपने प्रोडेक्ट का मॉडल बनाकर गांव में ही प्रोडेक्ट का फोटो शूट कराया जाता है और फिर वो महिला अपने ही बनाए प्रोडेक्ट की ब्रैंड एम्बैसेडर बन जाती हैं। कभी बैग्स टांगकर तो कभी कार्डिगन पहनकर सुपरमॉडल बनती महिलाओं का ये नया अवतार भी उन्हें अपार खुशियां दे जाता है। यही नहीं राह चलते भीअब लोग इस गांव की महिलाओं को पहचानने लगे हैं उनसे सम्मानपूर्वक बातें करते हैं उनके काम की तारीफ करते हैं। ये सामाजिक बदलाव नहीं तो क्या है। बैंक में जब ये महिलाएं पैसा निकालने या जमा करने जाती हैं तो कई महिलाओं को लोग मिलकर ऐसा काम करने की बधाइयां देते हैं। ये सारे पहलू उनके हौसले को दोगुना कर जाते हैं।

 बॉलिवुड तक पहुंची पहचान – कर्तव्य कर्मा की महिलाओं का काम ऐसा है जिसके चर्चे बॉलिवुड के स्टार एक्टर्स भी करते हैं। तल्ला गेठिया गांव में बन रही कपड़े की ज्वैलरी फिल्म एक्टर वरुण धवन को भी लुभा गई।

वरुण धवन और अनुष्का शर्मा की फिल्म सुई-धागा से तो आप वाकिफ ही होंगे। इस फिल्म की रिलीज़ के बाद खुद वरूण धवन ने ट्विटर पर बताया कि कर्तव्य कर्म की कहानी भी उनकी फिल्म सुईःधागे से मिलती है तो उन्होंने भी हमें ना सिर्फ बधाई दी बल्कि ट्विटर पर टैग करके लिखा कि मैं उम्मीद करता हूं कि आपकी कहानी के पात्र भी फिल्म सुई-धागे की कहानी से ज़रुर मेल खाएंगे। पहाड़ सी दिक्कतें भी हैं सामने

 मेहनत की नई परिभाषा लिखती है गांव की महिलाएं- पहाड़ की मुश्किल और कठोर जिंदगी जी रही कर्तव्य कर्म से जुड़ी महिलाएं बेहद मेहनती होती हैं। घर की साफ सफाई, चूल्हा-चौका करने के बाद खेतों में काम करती हैं। गाय-भैंस चराती हैं। बच्चों को स्कूल भेजती हैं फिर लाती हैं। इसके बाद कई किलोमीटर का रास्ता तय कर, नदियां पार कर मुश्किल रास्तों से गुजरते हुए ये कर्तव्य कर्मा के सेंटर पर पहुंचती हैं। चार से पांच घंटे काम करने के बाद ये फिर घर वापस लौटती हैं पूरे परिवार का खानाबनाती हैं। तब तक रात हो चुकी होती है और अगले दिन का सारा काम फिर से इनके दिमाग में गोते खाने लगता है। सुई धागे का काम इतना भी आसान नहीं होता। संस्था इन महिलाओं को हर 6-6 महीने पर टिटनेस का इंजेक्शन भी लगवाती है क्योंकि सुई कभी हाथ में चुभती है तो कभी कहीं उंगली में। इन सब मुश्किलों के बाद भी इन महिलाओं के हौसले टस सेमस नहीं होते। उन्हें तो अपनी और अपने गांव की पहचान बनानी है लिहाज़ा ये अविरल धारा की तरह बहती चली जा रही हैं बिना किसी लोभ लालच के।

बिना सरकारी मदद के काम –  कर्तव्य कर्मा संस्था के संस्थापक गौरव अग्रवाल अब तक बिना किसी सरकारी मदद के ही ये सारा काम आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं। बताया गया कि ऐसा नहीं कि सरकारी मदद के लिए कभी सोचा नहीं गया, लेकिन कागज़ी कार्रवाई और दौड़भाग में अगर उलझते तो जिस मुकाम पर आज खड़े हैं वो कभी हासिल नहीं हो पाता।

कर्तव्य कर्मा की अपील-  संस्थापक गौरव मानते है कि अगर आप अपने काम को बड़ा कर लोगे तो मदद के लिए खुद लोगों के हाथ आगे बढने लगेंगे।  देश-विदेशों में अपनी पहचान बना चुके कर्तव्य कर्मा को मदद की ज़रुरत है। NGO ने अपील करते हुए कहा है कि अगर ज्यादा से ज्यादा मददगार हाथ आगे आएंगे तो ज्यादा से ज्यादा परिवारों को रोज़गार मिलेगा और पहाड़ सेपलायन की समस्या का समाधान हो सकेगा। महिला उत्थान का ये सिलसिला और कारवां और भी बड़ा करना है और भी आगे ले जाना है। संस्था अपने साथ करीब 1000 महिलाओं को जोड़ने का लक्ष्य लेकर आगे बड़ रही है।

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