अलग उत्तराखंड राज्य के समर्थन में क्यों नहीं थे हरीश रावत ? खुद किया बड़ा खुलासा

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अलग उत्तराखंड राज्य के समर्थन में क्यों नहीं थे हरीश रावत ? खुद किया बड़ा खुलासा

Harish

उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को अलग उत्तराखंड राज्य का विरोधी कहा जाता रहा है। अब हरीश रावत ने इस पर खुलकर बात की है। हरीश रावत ने इस पर अपने फेसबुक पेज पर बकायदा एक लंबा पोस्ट लिखा है और अपनी स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की है।


 

देहरादून (उत्तराखंड पोस्ट) उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को अलग उत्तराखंड राज्य का विरोधी कहा जाता रहा है। अब हरीश रावत ने इस पर खुलकर बात की है। हरीश रावत ने इस पर अपने फेसबुक पेज पर बकायदा एक लंबा पोस्ट लिखा है और अपनी स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की है।

हालांकि हरीश रावत का ये पहला पोस्ट और इस पर वे आगे भी लिखेंगे क्योंकि उन्होंने अपनी बात क्रमश: के साथ खत्म की है।

नीचे पढ़िए हरीश रावत का फेसबुक पोस्ट का मूल पाठ-

आम तौर पर प्रचलित है कि मैं उत्तराखण्ड राज्य के समर्थन में नहीं था। इसका एक बड़ा कारण लम्बे समय तक कांग्रेस पार्टी का उत्तर प्रदेश के विभाजन के विरोध में रहना है। मैं 9वें दशक में जब राज्य आन्दोलन चरम पर था, दिल्ली में कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन बड़े नामों में एक मात्र सक्रिय व्यक्ति था जो आन्दोलन के प्रश्न पर मौन नहीं था।

मैं कुछ न कुछ कह रहा था व कर रहा था। दूसरा बड़ा कारण यह भी था कि प्रारम्भ में अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र ही राज्य आन्दोलन का केन्द्र बिन्दु था, सभी महत्वपूर्ण नेता स्व. डॉ. डी.डी. पंत, जसवंत सिंह बिष्ट, स्व. विपिन चन्द्र त्रिपाठी, पूरन सिंह डंगवाल, काशी सिंह ऐरी, स्व. शमशेर सिंह बिष्ट, पी.सी. तिवारी, स्व. प्रताप सिंह बिष्ट, नवीन मुरारी, नारायण सिंह जंतवाल आदि की राजनीति का केन्द्र बिन्दु भी यही क्षेत्र था। केवल स्व. इन्द्रमणी बड़ोनी और दिवाकर भट्ट टिहरी जनपद से थे। कांग्रेस, भाजपा के बाद उक्रांद तीसरी शक्ति के रूप में इसी क्षेत्र में प्रभावी थी और अल्मोड़ा उस समय जनआन्दोलनों का गढ़ था। कांग्रेस सत्तारूढ़ दल था, मुझे अपनी व पार्टी की राजनीति के रक्षार्थ इन सब महानुभवों से जूझना पड़ता था। स्वभाविक रूप से मेरा नाम राज्य आन्दोलन के विरोधियों में सबसे ऊपर लिखा जाता रहा।

प्रारम्भिक तथ्य इस आम धारणा के विपरीत है। मैं जब इंटर पढ़ने रामनगर गया, मेरी प्रारम्भिक राजनैतिक शिक्षा/दीक्षा जिन 3 व्यक्तियों के सानिध्य में हुई, वे सब पृथक राज्य समर्थक थे व कम्युनिष्ट थे। स्व. सुशील कुमार निरंजन, स्व. सुन्द्रियाल व विष्णु प्रसाद अग्रवाल ने मुझे रामनगर जाते ही अपने आभा मण्डल में ले लिया। गांव से गया युवा जिसके मां-बाप व मामा लोगों ने नौकरी के सपने के साथ अंग्रेजी, गणित, विज्ञान आदि पढ़ने भेजा व पढ़ने लगा पृथक राज्य। मैं खिलाड़ी था, थोड़ा बाचाल था। चाय-दूध पीने जिस डंगवाल खोमचे या ललदा खोमचे में जाता था, वहां इन लोगों का अड्डा हुआ करता था और इनकी खूब बहसबाजी होती थी। स्व. शिवप्रकाश अग्रवाल जो विष्णु जी के छोटे भाई थे, लोहियावादि थे, एडवोकेट बनकर आये थे, मेरे दो सहपाठी स्व. ललित मोहन दुर्गापाल और कैलाश जोशी भी इस मण्डली के स्थाई शोभा थे। कभी-2 कांग्रेस नेता रामवतार जी व जोशी जी इस मण्डली की बहस में योगदान देते थे। मैं बड़ी उत्सुकता से इनकी बातों को सुनता था। गांव वाले को बड़ी-2 बातें व बहस, कब अच्छी लगने लगी और वह भी इसका हिस्सा बन गया, इसका मुझे स्मरण नहीं है। मगर यहां होने वाली गर्मा-गर्म चर्चा का एक विषय पहाड़ के आठ जिलों का राज्य भी होता था एवं सुशील कुमार निरंजन पत्रकार थे और साप्ताहिक पत्रिका निकालते थे, कम्युनिष्ट थे। उनसे मेरी निकटता कैलाश जोशी के माध्यम से बढती गई। कैलाश, रोज मुझे उनके छोटे से दफ्तर में खींचकर ले जाता था, वहीं मैंने मार्क्स, लेनिन के साथ कामरेड पी. सी. जोशी का नाम भी सुना। निरंजन व सुन्द्रियाल उनके प्रशंसक थे। पी.सी. जोशी के प्रभाव में उनके महासचिव रहते कम्युनिष्ट पार्टी ने उत्तराखण्ड राज्य का प्रस्ताव पारित किया था। दोनों तब से उनसे जुड़े हुये थे। खैर मेरी रूचि भी उत्तराखण्ड शब्द में बढ़ गई। मुझे भी उसमें अपना भविष्य दिखाई देने लगा और धीरे-2 चाय के खोमचे की चौपाल में पहाड़ी राज्य के लिये तर्क देने लगा, यह मेरा उत्तराखण्ड के लिये पहला जनेवुकरण था।

नेतागिरी की लत डंगवाल व लल्दा के खोमचे में लगी, लखनऊ विश्व विद्यालय तक लगी रही। यदा-कदा रामनगर आकर निरंजन जी से लत को रिन्यू करवा लेता था। मैं कम्युनिष्ट पार्टी का सदस्य नहीं बना, मगर मैं कम्युनिज्म की सर्वहारा सोच से प्रभावित रहा। लखनऊ विश्व विद्यालय के तिलक हाल में मेरा रूम मेट श्री देवेन्द्र सिंह बिष्ट भी घोर कम्युनिष्ट था। धीरे-2 छात्र आन्दोलन माध्यम से मैं कई नेताओं से जुड़ गया। 1969 में हम लोग विश्व विद्यालय के स्टेडियम में इंदिरा गांधी को बुलाकर लाये। उन्हें सुनने के बाद मैं खुला कांग्रेसी हो गया। वह क्षण, मेरे लिये आज भी रोमांचक है, खैर उस पर फिर कभी बात करूंगा। हां, विश्व विद्यालय छोड़ने के बाद भी मैं कांग्रेस से जुड़ा रहा। घर आते ही मैं अपने गांव के निकटस्थ स्कूल की प्रबन्धन समिति से जुड़ गया। यहां भी सब कांग्रेस से जुड़े लोग थे। फिर ब्लॉक प्रमुख बन गया। असली कहानी यहां से प्रारम्भ होती है।

मैं प्रखर मूर्धन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व एक वरिष्ठ एडवोकेट के विरोध में प्रमुख का चुनाव जीता। मगर मैंने अपने को कांग्रेस से संबद्ध बताया। उस समय हमारे जिले में प्रतिपक्ष के 3 प्रमुख थे, एक जनसंघ और दो सोसलिस्ट थे। श्र जसवन्त सिंह बिष्ट उनमें से एक थे। हम अड़ोस-पड़ोस के प्रमुख थे। सन् 1973 में स्व. प्रताप सिंह नेगी, एम.पी. हमारे क्षेत्र में आये। नेगी, कांग्रेस के लोकसभा सदस्य थे। राज्य बनाओ जागृति हेतु सम्पर्क यात्रा में थे। मैं और बिष्ट भी नेगी जी के साथ राज्य सम्पर्क यात्रा में जुड़ गये थे। केदार, स्याल्दे, सराईखेत, उप्राईखाल होते हुये वीरोंखाल तक गये, यह मेरी पहली राजनैतिक पदयात्रा थी और उत्तराखण्ड राज्य के सर्मथन में थी।

सातवां दशक, मेरे राजनैतिक व सामाजिक जीवन की बुनियाद बनाने व मेरी सोच को धरातलीय आधार देने में अति महत्वपूर्ण रहा है। आज का हरीश रावत उसी का परिणाम है, ब्लॉक प्रमुख व युवक कांग्रेस के जिलाध्यक्ष, प्रांतीय महासचिव फिर स्व. संजय गांधी जी के एक संघर्षशील कार्यकर्ता के तौर पर मैंने देश व उत्तराखण्ड का व्यापक भ्रमण किया। कुमाऊं-गढ़वाल को गहराई से समझा। मैंने उत्तराखण्ड से पहले उत्तराखण्डियत का पाठ पढ़ा, राजनैतिक कारणों से नहीं बल्कि 8 पहाड़ी जनपदों की ‘‘वास्तविकता की समझ’’ की किताब से पढ़ा।   क्रमशः                                                            (हरीश रावत)

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