मैं नहीं कर सका लेकिन इस पवित्र कार्य के लिए पुष्कर सिंह धामी के पास लंबा वक्त है: हरीश रावत

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मैं नहीं कर सका लेकिन इस पवित्र कार्य के लिए पुष्कर सिंह धामी के पास लंबा वक्त है: हरीश रावत

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देहरादून (उत्तराखंड पोस्ट) उत्तराखंड में सशक्त भू कानून की मांग उठ रही है। धामी सरकार सशक्त भ- कानून लाने का वादा भी कर चुकी है लेकिन अब भू-कानून को लेकर पूर्व सीएम हरीश रावत ने राज्य की पुष्कर सिंह धामी सरकार पर निशाना साधा है।

हरदा ने इस संबंध में फेसबुक पर एक लंबी पोस्ट लिखकर भू कानून पर अपना पक्ष रखा है और सशक्त भू कानून का समर्थन करते हुए सरकार से इस पर जल्द फैसला लेने की मांग की है। हरीश रावत ने इस पर क्या लिखा, वो आप नीचे पढ़ सकते हें-

हरीश रावत की फेसबुक पोस्ट-

उत्तराखंड में एक नारा सर्वत्र गूंज रहा है कि उत्तराखंड मांगे नया भू-कानून और यह नारा समय-समय पर राजनीतिक आवश्यकता अनुरूप इसका वॉल्यूम घट और बढ़ जा रहा है। एक बार तो ऐसी स्थिति आयी कि कई पोर्टल्स ने इसको लेकर के जनमत संग्रह प्रारंभ कर दिया, फिर एका एक सब चुप हो गए। इतर राज्य के मुख्यमंत्री ने एक नया राग अलापा भूमि जिहाद का, ऐसा आभास दिया गया कि एक धर्म विशेष के लोगों ने उत्तराखंड की जमीन पर एक बहुत बड़ा अतिक्रमण कर दिया, जब कई बातें सामने आई स्थिति बिलकुल उल्टी दिखाई दी तो फिर मुख्यमंत्री भी बिलकुल शांत हो गए, फिर वो किसी और जिहाद की तरफ चले गए। अब आजकल "अतिक्रमण हटाओ, बुल्डोजर फिराओ" यह सरकार की कार्यनीति बन गई है।  हजारों लोगों की आजीविका, बिना कोई वैकल्पिक उपायों के छीनी जा रही है।

पीड़ित लोगों की स्थिति यह है कि जबरा मारे रोने न दे, यदि विरोध कर रहे हैं तो थाने में बैठा दिये जा रहे हैं, जेल का डर दिखाया जा रहा है। हां, उत्तराखंड मांगे नया भू-कानून इसके पीछे कुछ तथ्यात्मक बातें छीपी हुई हैं।

उत्तराखंड में उपलब्ध भू-भाग का एक बड़ा हिस्सा वन और बर्फ आदि से ढका हुआ है, नदी, नाले, छोटे पहाड़ियों से अलग हटकर जो उपलब्ध जमीनें हैं, वो सीमित हैं। जनसंख्या बढ़ रही है, राज्य बनने के बाद बहुत सारे लोग आजीविका की तलाश में भी उत्तराखंड आए। उत्तराखंड की भूमि के संरक्षण का अर्थ है प्रकृति का संरक्षण, जंगलों का संरक्षण, हिमालयी जैव विविधता का संरक्षण, गंगा, यमुना, शारदा जैसी पवित्र नदियों की जल संभरण क्षमता का संरक्षण, आध्यात्म आधारित परंपरागत सांस्कृतिक परिवेश का संरक्षण आने वाली पीढ़ियों के आर्थिक भविष्य का संरक्षण इसी तथ्य को ध्यान में रखकर हमारे पड़ोसी हिमाचल के निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार ने हिमाचल में गैर हिमाचली व्यक्ति के लिए जमीन की खरीद पर रोक लगा दी, यह निर्णय बुनियाद बना हिमालयी राज्यों के आर्थिक मॉडल का।  राज्य बनने के बाद हमारे राज्य के मुख्यमंत्री स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नारायण दत्त तिवारी ने भी डॉ. वाई.यस. परमार जी का अनुसरण किया।

हमने कहा कि उत्तराखंडी वह व्यक्ति है जो राज्य बनने के दिन तक उत्तराखंड में निवास कर रहा था उसके लिए कुछ पहचानें निर्धारित की गई। नारायण दत्त तिवारी जी के बाद सेना के सेवानिवृत्त मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी जी ने भी गैर उत्तराखंडी को 500 मीटर भूखंड खरीदने की छूट को घटाकर 250 मीटर कर दिया, सभी मुख्यमंत्रियों ने अपने अंग्रेजों के इस निर्णय का पालन किया। सन् 2017 में उत्तराखंड के इतिहास में अपार बहुमत वाली सरकार अस्तित्व में आई! उस सरकार ने 2018 में विधानसभा के पटल पर एक संशोधन विधेयक रखा, जिसके माध्यम से उत्तराखंड में किसी भी व्यक्ति के लिए भूमि खरीद की सीमा को कुछ राइडर्स के साथ पूर्णतः हटा दिया गया। यह विधेयक 6 दिसंबर, 2018 में विधानसभा के पटल पर रखा गया, जिसके माध्यम से उत्तर प्रदेश जम्मीदारी उन्मूलन एवं भू-व्यवस्था अधिनियम की धारा 143 और 154 में संशोधन कर भू उपयोग और भू खरीद की सीमा को पूर्णतः सीथिल कर दिया गया।

राज्य के औधौगिक विकास के नाम पर हिमालयी राज्य की अवधारणा का विधानसभा के पटल पर चीर हरण हुआ। इस चीर हरण में जो मौन रहे लोगों से भी इतिहास सवाल करेगा और जिन्होंने यह सब किया उनको भी निश्चय ही जवाब देह बनाएगा। आज उत्तराखंड में दूर-दराज के गांव और अत्यधिक संवेदनशील गांव में भी अंधा धुंध बिना रोक-टोक के जमीन की खरीद-फरोख्त हो रही है। एक नई संस्कृति जो वनंतरा रिजॉर्ट के रूप में सामने आई है, यह इसी ऐतिहासिक गलती का परिणाम है।

सरकारी पक्ष इतना उत्साहित था कि उन्होंने राज्य की राजधानी के रूप में चयनित भराड़ीसैंण, गैरसैंण के भू नोटिफिकेशन को भी खारिज कर दिया। आज जमीन बेचने की उत्तराखंडियों में होड़ लगी है। नारसन से गंगोत्री तक, जसपुर से मुनस्यारी तक, "तू चल, मैं आया" की तर्ज पर जमीनें बेची जा रही हैं। राज्य के जमीन के संयुक्त खाता पद्धति का लाभ उठाकर गांव से दूसरे शहरों में बस गए लोग अपने हिस्से की जमीनें बेचकर यह घोषणा कर रहे हैं कि अब उन्हें इन गांवों में लौटकर नहीं आना है, उन्हें अपने आनी वाली पीढ़ियों, वंश और वंशावली के इतिहास से भी शायद कुछ लेना-देना नहीं रह गया है! जमीन बेचने में गांव में रह रहे लोग भी पीछे नहीं हैं, जमीन की खरीद-फरोख्त के जितने बिचौलिये देहरादून में हैं उनसे ज्यादा लोग दूर-दराज के गांव और कस्बों में विराजमान हुए हैं।

पुष्कर सिंह धामी कई जिहादों को रोकने में लगे हैं। ये जमीन बेचो जिहाद को कैसे रोकेंगे, यह समय की उनसे अपेक्षा है! उत्तराखंड को आंतरिक भू-सुधारों और नए भू बंदोबस्त की नितांत आवश्यकता है। 2016 में तत्कालीन सरकार ने कई भू सुधार लागू किए और पर्वतीय क्षेत्रों के लिए नया चकबंदी कानून विधानसभा में पारित किया, उसी कालखंड में वर्ग तीन, वर्ग चार, वर्ग दस तक के अनेक भू वर्गीकरणों को सामान्य भू-अधिकार में बदल कर कब्जा धारकों को स्वामित्व दिया। छोटे-छोटे भू खंड जो हजारों की संख्या में राज्य भर में बिखरे पड़े थे, उन पर काबिज लोगों को भी उनका स्वामित्व प्रदान किया गया। खाम लैंड जैसी सरकारी भूमियों पर भी लंबे समय से काबिज किसानों को भूमिधारी दी। गांधी ग्राम, इंदिरा ग्राम, हरी ग्राम जैसे दर्जनों गांवों को उनमें बसे हुए लोगों के नाम पर वैधानिक पट्टा धारक बनाया। मलिन बस्तियों के लोगों को मालिकाना हक देने के लिए रिवर फ्रंट डेवलपमेंट की योजना के साथ मलिन बस्तियों में बसे हुए कब्जा धारकों को स्वामित्व प्रदान करने का कानून बनाया और अधिकार पत्र वितरण का शुभारंभ किया।

हमने संप्रग सरकार के समय में वर्ष 2006 में पारित फॉरेस्ट ड्वेलर्स राइट एक्ट के तहत जंगलों और जंगलों के निकट स्थापित गोट, खत्ते, वन ग्राम आदि के नियमितीकरण व टिहरी विस्थापितों सहित गर्बियान के आपदा  विस्थापितों को उन्हें आवंटित भूमि के मालिकाना हक देने की प्रक्रिया भी प्रारंभ की। 2017 के सत्ता परिवर्तन के साथ भूमि सुधारों की  इस प्रक्रिया पर विराम लग गया जिसको आगे बढ़ाने के साथ पर्वतीय चकबंदी, सामूहिक खेती लीज पट्टे पर आधारित खेती, क्लस्टर बेस खेती आदि के लिए अभी और भूमि सुधार प्रारंभ किए जाने की आवश्यकता है। हम एक तथ्य को नहीं भूल सकते कि भूमि या भू आधारित कृषि एवं अन्य व्यवसाय, उत्तराखंड के अर्थव्यवस्था के लॉन्चिंग पैड है।

आप कहीं भी है यदि आपके पांव धरती पर नहीं टिके हैं तो आज नहीं तो कल, कल नहीं तो कालांतर में आप धड़ाम हो जायेंगे। भूमि सुधारों की निरंतरता एक सामयिक आवश्यकता है। हमने रेवेन्यू विभाग में सर्वाधिक नियुक्तियां की पेशकार, नायब तहसीलदार, मानचित्रकार के पदों को तेजी से भरा। पर्वतीय चकबंदी का प्रथम कैडर बनाने की शुरुआत की, इन इन शुरुआतों को आगे ले चलना समय की आवश्यकता है। हमारी सरकार ने कृषि भूमि की परस्पर आदान-प्रदान के लिए लीजिंग नियमावली तैयार की। यह सारे प्रयास तब तक अर्थहीन हैं, जब तक नया भू बंदोबस्त राज्य में लागू नहीं होता है।

मैं इस चुनौती को स्वीकार करना चाहता था। मगर दैवीय आपदा से निपटने के बाद मेरे पास इतना कम समय रह गया था कि मैं इस जटिलतम् समस्या के समाधान का प्रयास प्रारंभ नहीं कर सका। जीवन के इस अस्तांचल काल में मुझे इस बात का कष्ट रहेगा। आज अतिक्रमण के नाम पर जिस प्रकार राज्य भर में विभिन्न प्रकार के कब्जे धारकों को अवैध कब्जेदार चिन्हित किया जा रहा है जिनमें बड़ी संख्या में लीज होल्डर्स ग्राम पंचायत और ग्राम समाज की भूमि में बसे लोग विभिन्न मान्यता प्राप्त इकाइयों जैसे जिला पंचायत, नगर निकायों, वन पंचायतों आदि द्वारा टैक्स के साथ बसाए गए लोगों को अतिक्रमणकारी घोषित कर उनकी जीवन भर की पूंजी को बर्बाद करने का अभियान चल रहा है, उसको देखते हुए भू बंदोबस्त और भी आवश्यक हो गया है ताकि वन भूमि, गांव पंचायत की भूमि, नगर क्षेत्र की भूमि सहित भूमि के सभी वर्गों को मात्राकृत कर आलेख तैयार किए जा सकें और अतिक्रमण और आजीविका अर्जन आधारित कब्जों को समझा जा सके।

पुष्कर सिंह धामी के पास एक बड़ा कालखंड है। यदि उनकी सरकार भू-बंदोबस्त का निर्णय लेती है और उसको प्रारंभ करती है तो नये भू-कानून बनाने के लिए एक वैज्ञानिक डाटा उपलब्ध हो जाएगा। इस पवित्र कार्य हेतु राज्य में सामूहिक सहमति पहले से ही विद्यमान है।

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