120 जवानों ने चीन के 1300 सैनिकों को उतारा मौत के घाट, रौंगटे खड़े करने वाली मेजर शैतान सिंह की शौर्य गाथा

मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व वाली 13 कुमाऊं की भारतीय सैन्य टुकड़ी में मात्र 120 जवान थे जबकि दूसरी तरफ दुश्मन की विशाल फौज। ऊपर से बीच में एक चोटी दीवार की तरह खड़ी थी जिसकी वजह से हमारे सैनिकों की मदद के लिए भारतीय सेना की ओर से तोप और गोले भी नहीं भेजे जा सकते थे। अब 120 जवानों को अपने दम पर चीन की विशाल फौज और हथियारों का सामना करना था।
मेजर शैतान सिंह के पिता हेम सिंह ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस में भारतीय सेना के साथ सेवा की और ब्रिटिश सरकार द्वारा ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर (ओबीई) से सम्मानित किए गए थे।
मेजर शैतान सिंह ने जोधपुर के राजपूत हाई स्कूल में अपनी मैट्रिक तक की पढ़ाई की। 1943 में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद लग जसवंत कॉलेज गए और उन्होंने 1947 में स्नातक किया। 1 अगस्त 1949 को वह एक अधिकारी के रूप में जोधपुर राज्य बलों में शामिल हो गए। उनको 1 अगस्त, 1949 को कुमाऊं रेजिमेंट में कमीशन मिला था। 1962 के भारत-चीन युद्ध में उनको अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिला।
8 नवंबर 1962
- 8 नवंबर, 1962 की सुबह लद्दाख की चुशुल घाटी बर्फ से ढंकी हुई थी। तड़के 3.30 बजे घाटी का शांत माहौल गोलाबारी से गूंज उठा। गोला-बारूद और तोप के साथ चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के करीब 5,000 से 6,000 जवानों ने लद्दाख पर हमला कर दिया था।
मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व वाली 13 कुमाऊं की भारतीय सैन्य टुकड़ी में मात्र 120 जवान थे जबकि दूसरी तरफ दुश्मन की विशाल फौज। ऊपर से बीच में एक चोटी दीवार की तरह खड़ी थी जिसकी वजह से हमारे सैनिकों की मदद के लिए भारतीय सेना की ओर से तोप और गोले भी नहीं भेजे जा सकते थे। अब 120 जवानों को अपने दम पर चीन की विशाल फौज और हथियारों का सामना करना था। 13 कुमाऊं के वीर सैनिकों ने जो संभव हो सका, उतना ही सही जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी।
चीन के 1300 सैनिकों को मौत के घाट उतारा
- रेजांग ला युद्ध में चीनी सैनिकों से लोहा लेने के बाद जब भारतीय सैनिकों के हथियार खत्म हो गए, तो उन्होंने हाथों से लड़ना शुरू कर दिया और 1300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। 123 में से 114 सैनिक शहीद हो गए, इन्हीं में मेजर शैतान सिंह भी थे। बाकी 9 सैनिक बंदी बना लिए गए थे। भारतीय सैनिकों के इस पराक्रम के आगे चीनी सेना को भी झुकना पड़ा और अंततः 21 नवंबर को उसने सीजफायर का ऐलान कर दिया।
युद्ध के दौरान मेजर शैतान सिंह ने अपनी जान की परवाह किए बिना अपने सैनिकों का हौसला बनाए रखा और गोलियों की बौछार के बीच एक प्लाटून से दूसरी प्लाटून जाकर सैनिकों का नेतृत्व किया। इसी दौरान उनके कई गोलियां लग गईं। ज्यादा खून बह जाने पर उनके दो साथी जब उन्हें उठाकर ले जा रहे थे तभी चीनी सैनिकों ने उन पर मशीन गन से हमला कर दिया। मेजर को लगा कि उन सैनिकों की जान भी खतरे में है, इसलिए उन दोनों को पीछे जाने का आदेश दिया। मगर उन सैनिकों ने उन्हें एक पत्थर के पीछे छिपा दिया। बाद में इसी जगह पर उनका पार्थिव शरीर मिला। जिस वक्त उन्हें ढूंढा गया, उस वक्त भी उनके हाथ में उनकी बंदूक थी और पकड़ ढीली नहीं हुई थी।
मेजर शैतान सिंह की इस बहादुरी के लिए सरकार ने उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया। उनका पराक्रम आज भी भारतीय सेना के इतिहास का गौरवशाली हिस्सा है। रेजांग ला जम्मू-कश्मीर राज्य के लद्दाख क्षेत्र में चुशुल घाटी में एक पहाड़ी दर्रा है। 1962 के युद्ध में 13 कुमाऊं दस्ते का यह अंतिम मोर्चा था। इसीलिए इसे रेजांग ला युद्ध के नाम से जाना जाता है।
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